Shani wahan

शनि का वाहन भी तय करता है आपका भविष्य जानें कैसे–शनि के वाहन का साढ़ेसाती पर प्रभाव
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ज्योतिष एवं धार्मिक शास्त्रों में शनिदेव के रूप,
कार्यप्रणाली तथा कथाओं का वर्णन आता है।
शास्त्रों में ऐसा वर्णित है कि सूर्यपुत्र शनि का
कार्य प्रकृति में संतुलन पैदा करना तथा हर जीव का
उसके कर्मो के अनुसार न्याय करना है। शनि मात्र
पापियों और दुराचारियों को ही पीड़ित करते हैं।
ज्योतिष तथा दार्शनिक शास्त्र के कई नवीन
शोधकर्ताओं ने शनि कि गोचर अनुसार राशि
परिवर्तन कि तिथि, नक्षत्र में गोचर तथा नक्षत्र
परिवर्तन अनुसार शनिदेव के नौ वाहनों का उल्लेख
किया है। शनिदेव के हर वाहन का अलग अर्थ है तथा
हर वाहन का शुभाशुभ फलादेश है। शास्त्रानुसार
शनि जिस जातक कि कुंडली में जिस वाहन पर सवार
होते हैं वह जातक उसी अनुसार फल पाता है।
शनि के वाहन का साढ़ेसाती पर प्रभाव

शास्त्रो मे शनि के नौ वाहन कहे गये है. शनि की
साढेसाती के दौरान शनि जिस वाहन पर सवार
होकर (Sadesati gives results according to
Saturn’s ride) व्यक्ति की कुण्डली मे प्रवेश करते है.
उसी के अनुरुप शनि व्यक्ति को इस अवधि मे फल देते
है. वाहन जानने के लिए निम्न विधि से शनि
साढ़ेसाती के वाहन का निर्धारण करते हैं
शनि के वाहन निर्धारण का तरीका – 1
व्यक्ति को अपने जन्म नक्षत्र की संख्या (Number
of the birth Nakshatra) और शनि के राशि बदलने की
तिथि की नक्षत्र संख्या दोनो को जोड कर
योगफल को नौ से भाग करना चाहिए. शेष संख्या के
आधार पर शनि का वाहन निर्धारित होता है.]
शनि का वाहन जानने की एक अन्य विधि भी
प्रचलन मे है. इस विधि मे निम्न विधि अपनाते हैं
शनि के वाहन निर्धारण का तरीका – 2
शनि के राशि प्रवेश करने कि तिथि संख्या+ ऩक्षत्र
संख्या +वार संख्या +नाम का प्रथम अक्षर संख्या
सभी को जोडकर योगफल को 9 से भाग किया
जाता है. शेष संख्या शनि का वाहन बताती है.
दोनो विधियो मे शेष 0 बचने पर संख्या नौ समझनी
चाहिए.
अगर शेष संख्या 1 होने पर शनि गधे पर सवार होते है.
इस स्थिति मे मेहनत के अनुसार फल मिलते है.
शेष सँख्या 2 होने पर शनि घोडे पर सवार होते है. और
व्यक्ति को शत्रुओ पर विजय दिलाते है.
शेष सँख्या 3 होने पर शनि को हाथी पर सवार कहा
गया है- इस अवधि मे आशा के विपरित फल मिलते है.
शेष सँख्या 4 होने पर शनि को भैसे पर सवार बताया
गया है- ऎसा होने पर व्यक्ति को मिले जुले फल
मिलते है.
शेष सँख्या 5 होने पर शनि सिंह पर सवार होते है.
व्यक्ति अपने शत्रुओ को हराता है.
शेष सँख्या 6 होने पर शनि सियार पर सवार माने गये
है. इस दौरान शनि अप्रिय समाचार देते है.
शेष सँख्या 7 होने पर शनि का वाहन कौआ कहा गया
है. साढेसाती की अवधि मे कलह बढती है.
शेष सँख्या 8 होने पर शनि को मोर पर सवार बताया
गया है. व्यक्ति को शुभ फल मिलते है.
शेष सँख्या 9 होने पर शनि का वाहन हँस कहा गया है.
व शनि व्यक्ति को सुख देते है.
विशेष शेष संख्या 0 आने पर सँख्या 9 समझनी चाहिए-
और शनि का वाहन हँस समझना चाहिए-
शनि साढेसाती फल या वाहन के फल

जिस व्यक्ति को शनि की साढेसाती के चरण (If
both the Sadesati Phase and Vehicle are unlucky,
take care) के फल अशुभ मिल रहे है- तथा शनि का
वाहन भी शुभ नही है- तो इस स्थिति मे साढेसाती
के दौरान व्यक्ति को विशेष रुप से सावधान रहना
चाहिए- इस स्थिति मे व्यक्ति के सामने अनेक
चुनोतियाँ आती है- जिनका व्यक्ति को हिम्मत के
साथ सामना करना चाहिए
अगर किसी व्यक्ति को साढेसाती के अशुभ फल
(Sadesati is malefic) मिल रहे हो तथा शनि का
वाहन शुभ हो तो इस स्थिति मे साढेसाती के कष्टो
मे कमी आती है और व्यक्ति को मिला जुला फल
मिलता है-
जिस व्यक्ति के लिए शनि का वाहन शुभ हो तथा
साढेसाती के चरण के फल भी शुभ हो तो इस स्थिति
मे शुभता बढ जाती है- पर साढेसाती का चरण शुभ
तो और वाहन का फल अशुभ आ रहा हो तो व्यक्ति
को मिल&जुले फल मिलते है
शनि का वाहन कुछ व्यक्तियो के लिए शुभ फलकारी
है- तथा कुछ के लिए अशुभ फल देने वाला होता है-
प्रत्येक व्यक्ति के लिए शनि के फल अलग अलग हो
सकते है-
शनि वाहन : गधा (Saturn’s Vehicle – Donkey)
व्यक्ति के लिए शनि का वाहन गधा होने पर शनि
की साढेसाती मे मिलने वाले शुभ फलो मे कमी
होती है. शनि के इस वाहन को शुभ नही कहा गया है.
शनि की साढेसाती की अवधि मे व्यक्ति को
कार्यो मे सफलता प्राप्त करने के लिए काफी प्रयास
करना होता है. व्यक्ति को मेहनत के अनुरुप ही फल
मिलते है. इसलिए व्यक्ति का अपने कर्तव्य का पालन
करना हितकर होता है.
शनि वाहन : घोडा (Saturn’s Vehicle – Horse)
शनि का वाहन घोडा होने पर व्यक्ति को शनि की
साढेसाती मे शुभ फल मिलते है. इस दौरान व्यक्ति
समझदारी व अक्लमंदी से काम लेते हुए अपने शत्रुओ पर
विजय हासिल करता है. व व्यक्ति अपने बुद्धिबल से
अपने विरोधियों को परास्त करने मे सफल रहता है.
घोडे को शक्ति का प्रतिक माना गया है इसलिए
इस अवधि मे व्यक्ति के उर्जा व जोश मे बढोतरी
होती है.
शनि वाहन : हाथी (Saturn’s Vehicle – Elephant)
जिस व्यक्ति के लिए शनि का वाहन हाथी होता
है. उस व्यक्ति के लिए शनि के वाहन को शुभ नही
कहा गया है. इस दौरान व्यक्ति को अपनी उम्मीद से
हटकर फल मिलते है. इस स्थिति मे व्यक्ति को साहस
व हिम्मत से काम लेना चाहिए. तथा विपरित
परिस्थितियों मे भी घबराना नहीं चाहिए.
शनि वाहन : भैसा (Saturn’s Vehicle – Buffalo)
शनि का वाहन भैंसा आने पर व्यक्ति को मिले-जुले
फल मिलते है. शनि की साढेसाती की अवधि मे
व्यक्ति को संयम व होशियारी से काम करना
चाहिए. इस सममे मे बातो को लेकर अधिर व व्याकुल
होना व्यक्ति के हित मे नही होता है. व्यक्ति को
इस समय मे सावधानी से काम करना चाहिए. अन्यथा
कटु फलो मे वृ्द्धि होने की संभावना होती है.
शनि वाहन : सिंह (Saturn’s Vehicle – Lion)
शनि का वाहन सिँह व्यक्ति को शुभ फल देता है-
सिँह वाहन होने पर व्यक्ति क समझदारी व चतुराई से
काम लेना चाहिए- ऎसा करने से व्यक्ति अपने शत्रुओ
पर विजय प्राप्त करने मे सफल होता है- अत इस अवधि
मे व्यक्ति को अपने विरोधियोँ से घबराने की जरुरत
नही होती है-
शनि वाहन : सियार (Saturn’s Vehicle – Jackal)
शनि की साढेसाती के आरम्भ होने पर शनि का
वाहन सियार होने पर व्यक्ति को मिलने वाले फल
शुभ नही होते है- इस स्थिति मे व्यक्ति को साहस व
हिम्मत से काम लेना चाहिए- क्योकि इस दौरान
व्यक्ति को अशुभ सूचनाएं अधिक मिलने की
संभावनाएं बनती है
शनि वाहन : कौआ (Saturn’s Vehicle – Crow)
व्यक्ति के लिए शनि का वाहन कौआ होने पर उसे
शान्ति व सँयम से काम लेना चाहिए- परिवार मे
किसी मुद्दे को लेकर विवाद व कलह की स्थिति को
टालने का प्रयास करना चाहिए- ज्यादा से ज्यादा
बातचित कर बात को बढने से रोकने की कोशिश
करनी चाहिए- इससे कष्टो मे कमी होती है
शनि वाहन : मोर (Saturn’s Vehicle – Peacock)
शनि का वाहन मोर व्यक्ति को शुभ फल देता है- इस
समय मे व्यक्ति को अपनी मेहनत के साथ&साथ भाग्य
का साथ भी मिलता है- शनि की साढेसाती की
अवधि मे व्यक्ति अपनी होशियारी व समझदारी से
परेशानियों को कम करने मे सफल होता है- इस दौरान
व्यक्ति मेहनत से अपनी आर्थिक स्थिति को भी
सुधार पाता है-
शनि वाहन : हंस (Saturn’s Vehicle – Swan)
जिस व्यक्ति के लिए शनि का वाहन हँस होता है
उनके लिए शनि की साढेसाती की अवधि बहुत शुभ
होती है- इस मे व्यक्ति बुद्धिमानी व मेहनत से काम
करके भाग्य का सहयोग पाने मे सफल होता है- यह
वाहन व्यक्ति के आर्थिक लाभ व सुखो को बढाता
है- शनि के सभी वाहनो मे इस वाहन को सबसे अधिक
अच्छा कहा गया है-

Rahu related

राहू राहू राहू राहू राहू सभाव
राहू ससुराल है
राहू वह धमकी है जिससे आपको डर लगता है |
जेल में बंद कैदी भी राहू है |
राहू सफाई कर्मचारी है |
स्टील के बर्तन राहू के अधिकार में आते हैं |
हाथी दान्त की बनी सभी वस्तुए राहू के रूप हैं |
राहू वह मित्र है जो पीठ पीछे आपकी निंदा करता है !
दत्तक पुत्र भी राहू की देन होता है |
नशे की वस्तुएं राहू हैं |
दर्द का टीका राहू है |
राहू मन का वह क्रोध है जो कई साल के बाद भी शांत नहीं हुआ है, न लिया हुआ बदला भी राहू है |
शेयर मार्केट की गिरावट राहू है, उछाल केतु है |
बहुत समय से ताला लगा हुआ मकान राहू है |
बदनाम वकील भी राहू है |
मिलावटी शराब राहू है |
राहू वह धन है जिस पर आपका कोई हक़ नहीं है या जिसे अभी तक लौटाया नहीं गया है |
ना लौटाया गया उधार भी राहू है !
उधार ली गयी सभी वस्तुएं राहू खराब करती हैं !
यदि आपकी कुंडली में राहू अच्छा नहीं है तो किसी से कोई चीज़ मुफ्त में न लें क्योंकि हर मुफ्त की चीज़ पर राहू का अधिकार होता है |
राहू ग्रह का कुछ पता नहीं कि कब बदल जाए जैसे कि आप कल कुछ काम करने वाले हैं लेकिन समय आने पर आपका मन बदल जाए और आप कुछ और करने लगें तो इस दुविधा में राहू का हाथ होता है | किसी भी प्रकार की अप्रत्याशित घटना का दावेदार राहू ही होता है | आप खुद नहीं जानते की आप आने वाले कुछ घंटों में क्या करने वाले हैं या कहाँ जाने वाले हैं तो इसमें निस्संदेह राहू का आपसे कुछ नाता है | या तो राहू लग्नेश के साथ है या लग्न में ही राहू है | यदि आप जानते हैं की आप झूठ की राह पर हैं परन्तु आपको लगता है की आप सही कर रहे हैं तो यह धारणा आपको देने वाला राहू ही है !
किसी को धोखा देने की प्रवृत्ति राहू पैदा करता है यदि आप पकडे जाएँ तो इसमें भी आपके राहू का दोष है और यह स्थिति बार बार होगी इसलिए राहू का अनुसरण करना बंद करें क्योंकि यह जब बोलता है तो कुछ और सुनाई नहीं देता |
जिस तरह कर्ण पिशाचिनी आपको गुप्त बातों की जानकारी देती है उसी तरह यदि राहू आपकी कुंडली में बलवान होगा तो आपको सभी तरह की गुप्त बातें बैठे बिठाए ही पता चल जायेंगी | यदि आपको लगता है की सब कुछ गुप्त है और आपसे कुछ छुपाया जा रहा है या आपके पीठ पीछे बोलने वाले लोग बहुत अधिक हैं तो यह भी राहू की ही करामात है |
राहू रहस्य का कारक ग्रह है और तमाम रहस्य की परतें राहू की ही देन होती हैं | राहू वह झूठ है जो बहुत लुभावना लगता है | राहू झूठ का वह रूप है जो झूठ होते हुए भी सच जैसे प्रतीत होता है | राहू कम से कम सत्य तो कभी नहीं है |
जो सम्बन्ध असत्य की डोर से बंधे होते हैं या जो सम्बन्ध दिखावे के लिए होते हैं वे राहू के ही बनावटी सत्य हैं |
राहू व्यक्ति को झूठ बोलना सिखाता है
बातें छिपाना, बात बदलना, किसी के विशवास को सफलता पूर्वक जीतने की कला राहू के अलावा कोई औरग्रह नहीं दे सकता |
राहू वह लालच है जिसमे व्यक्ति को कुछ अच्छा बुरा दिखाई नहीं देता केवल अपना स्वार्थ ही दिखाई देता है |
क्यों न हों ताकतवर राहू के लोग सफल? क्यों बुरे लोग तरक्की जल्दी कर लेते हैं | क्यों झूठ का बोलबाला अधिक होता है और क्यों दिखावे में इतनी जान होती है ? क्योंकि इन सबके पीछे राहू की ताकत रहती है |
मांस मदिरा का सेवन, बुरी लत, चालाकी और क्रूरता, अचानक आने वाला गुस्सा, पीठ पीछे की वो बुराई, जो ये कामv करे ये सब राहू की विशेषताएं हैं | असलियत को सामने न आने देना ही राहू की खासियत है.

Amavasya importance

पूर्णिमा और अमावस्या का रहस्य (पुनः प्रेषित)
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हिन्दू धर्म में पूर्णिमा, अमावस्या और ग्रहण
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हिन्दू धर्म में पूर्णिमा, अमावस्या और ग्रहण के रहस्य को उजागर किया गया है। इसके अलावा वर्ष में ऐसे कई महत्वपूर्ण दिन और रात हैं जिनका धरती और मानव मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। उनमें से ही माह में पड़ने वाले 2 दिन सबसे महत्वपूर्ण हैं- पूर्णिमा और अमावस्या। पूर्णिमा और अमावस्या के प्रति बहुत से लोगों में डर है। खासकर अमावस्या के प्रति ज्यादा डर है। वर्ष में 12 पूर्णिमा और 12 अमावस्या होती हैं। सभी का अलग-अलग महत्व है।

हिन्दू पंचांग के अनुसार माह के 30 दिन को चन्द्र कला के आधार पर 15-15 दिन के 2 पक्षों में बांटा गया है- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। शुक्ल पक्ष के अंतिम दिन को पूर्णिमा कहते हैं और कृष्ण पक्ष के अंतिम दिन को अमावस्या।

हिन्दू पंचांग कि अवधारणा
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यदि शुरुआत से गिनें तो 30 तिथियों के नाम निम्न हैं- पूर्णिमा (पूरनमासी), प्रतिपदा (पड़वा), द्वितीया (दूज), तृतीया (तीज), चतुर्थी (चौथ), पंचमी (पंचमी), षष्ठी (छठ), सप्तमी (सातम), अष्टमी (आठम), नवमी (नौमी), दशमी (दसम), एकादशी (ग्यारस), द्वादशी (बारस), त्रयोदशी (तेरस), चतुर्दशी (चौदस) और अमावस्या (अमावस)।

अमावस्या पंचांग के अनुसार माह की 30वीं और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि है जिस दिन कि चंद्रमा आकाश में दिखाई नहीं देता। हर माह की पूर्णिमा और अमावस्या को कोई न कोई पर्व अवश्य मनाया जाता ताकि इन दिनों व्यक्ति का ध्यान धर्म की ओर लगा रहे।

नकारात्मक और सकारात्मक शक्तियां
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धरती के मान से 2 तरह की शक्तियां होती हैं- सकारात्मक और नकारात्मक, दिन और रात, अच्छा और बुरा आदि। हिन्दू धर्म के अनुसार धरती पर उक्त दोनों तरह की शक्तियों का वर्चस्व सदा से रहता आया है। हालांकि कुछ मिश्रित शक्तियां भी होती हैं, जैसे संध्या होती है तथा जो दिन और रात के बीच होती है। उसमें दिन के गुण भी होते हैं और रात के गुण भी।

इन प्राकृतिक और दैवीय शक्तियों के कारण ही धरती पर भांति-भांति के जीव-जंतु, पशु-पक्षी और पेड़-पौधों, निशाचरों आदि का जन्म और विकास हुआ है। इन शक्तियों के कारण ही मनुष्यों में देवगुण और दैत्य गुण होते हैं।

हिन्दुओं ने सूर्य और चन्द्र की गति और कला को जानकर वर्ष का निर्धारण किया गया। 1 वर्ष में सूर्य पर आधारित 2 अयन होते हैं- पहला उत्तरायण और दूसरा दक्षिणायन। इसी तरह चंद्र पर आधारित 1 माह के 2 पक्ष होते हैं- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।

इनमें से वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल पक्ष में देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं, तो दक्षिणायन और कृष्ण पक्ष में दैत्य और पितर आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं। अच्छे लोग किसी भी प्रकार का धार्मिक और मांगलिक कार्य रात में नहीं करते जबकि दूसरे लोग अपने सभी धार्मिक और मांगलिक कार्य सहित सभी सांसारिक कार्य रात में ही करते हैं।

पूर्णिमा का रहस्य
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पूर्णिमा की रात मन ज्यादा बेचैन रहता है और नींद कम ही आती है। कमजोर दिमाग वाले लोगों के मन में आत्महत्या या हत्या करने के विचार बढ़ जाते हैं। चांद का धरती के जल से संबंध है। जब पूर्णिमा आती है तो समुद्र में ज्वार-भाटा उत्पन्न होता है, क्योंकि चंद्रमा समुद्र के जल को ऊपर की ओर खींचता है। मानव के शरीर में भी लगभग 85 प्रतिशत जल रहता है। पूर्णिमा के दिन इस जल की गति और गुण बदल जाते हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार इस दिन चन्द्रमा का प्रभाव काफी तेज होता है इन कारणों से शरीर के अंदर रक्‍त में न्यूरॉन सेल्स क्रियाशील हो जाते हैं और ऐसी स्थिति में इंसान ज्यादा उत्तेजित या भावुक रहता है। एक बार नहीं, प्रत्येक पूर्णिमा को ऐसा होता रहता है तो व्यक्ति का भविष्य भी उसी अनुसार बनता और बिगड़ता रहता है।

जिन्हें मंदाग्नि रोग होता है या जिनके पेट में चय-उपचय की क्रिया शिथिल होती है, तब अक्सर सुनने में आता है कि ऐसे व्यक्‍ति भोजन करने के बाद नशा जैसा महसूस करते हैं और नशे में न्यूरॉन सेल्स शिथिल हो जाते हैं जिससे दिमाग का नियंत्रण शरीर पर कम, भावनाओं पर ज्यादा केंद्रित हो जाता है। ऐसे व्यक्‍तियों पर चन्द्रमा का प्रभाव गलत दिशा लेने लगता है। इस कारण पूर्णिमा व्रत का पालन रखने की सलाह दी जाती है।

कुछ मुख्य पूर्णिमा
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कार्तिक पूर्णिमा, माघ पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, बुद्ध पूर्णिमा आदि।

चेतावनी : इस दिन किसी भी प्रकार की तामसिक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। इस दिन शराब आदि नशे से भी दूर रहना चाहिए। इसके शरीर पर ही नहीं, आपके भविष्य पर भी दुष्परिणाम हो सकते हैं। जानकार लोग तो यह कहते हैं कि चौदस, पूर्णिमा और प्रतिपदा उक्त 3 दिन पवित्र बने रहने में ही भलाई है।

अमावस्या का रहस्य
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वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल पक्ष में देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं तो दक्षिणायन और कृष्ण पक्ष में दैत्य आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं। जब दानवी आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं, तब मनुष्यों में भी दानवी प्रवृत्ति का असर बढ़ जाता है इसीलिए उक्त दिनों के महत्वपूर्ण दिन में व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को धर्म की ओर मोड़ दिया जाता है।

अमा‍वस्या के दिन भूत-प्रेत, पितृ, पिशाच, निशाचर जीव-जंतु और दैत्य ज्यादा सक्रिय और उन्मुक्त रहते हैं। ऐसे दिन की प्रकृति को जानकर विशेष सावधानी रखनी चाहिए। प्रेत के शरीर की रचना में 25 प्रतिशत फिजिकल एटम और 75 प्रतिशत ईथरिक एटम होता है। इसी प्रकार पितृ शरीर के निर्माण में 25 प्रतिशत ईथरिक एटम और 75 प्रतिशत एस्ट्रल एटम होता है। अगर ईथरिक एटम सघन हो जाए तो प्रेतों का छायाचित्र लिया जा सकता है और इसी प्रकार यदि एस्ट्रल एटम सघन हो जाए तो पितरों का भी छायाचित्र लिया जा सकता है।

ज्योतिष में चन्द्र को मन का देवता माना गया है। अमावस्या के दिन चन्द्रमा दिखाई नहीं देता। ऐसे में जो लोग अति भावुक होते हैं, उन पर इस बात का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। लड़कियां मन से बहुत ही भावुक होती हैं। इस दिन चन्द्रमा नहीं दिखाई देता तो ऐसे में हमारे शरीर में हलचल अधिक बढ़ जाती है। जो व्यक्ति नकारात्मक सोच वाला होता है उसे नकारात्मक शक्ति अपने प्रभाव में ले लेती है।

धर्मग्रंथों में चन्द्रमा की 16वीं कला को ‘अमा’ कहा गया है। चन्द्रमंडल की ‘अमा’ नाम की महाकला है जिसमें चन्द्रमा की 16 कलाओं की शक्ति शामिल है। शास्त्रों में अमा के अनेक नाम आए हैं, जैसे अमावस्या, सूर्य-चन्द्र संगम, पंचदशी, अमावसी, अमावासी या अमामासी। अमावस्या के दिन चन्द्र नहीं दिखाई देता अर्थात जिसका क्षय और उदय नहीं होता है उसे अमावस्या कहा गया है, तब इसे ‘कुहू अमावस्या’ भी कहा जाता है। अमावस्या माह में एक बार ही आती है। शास्त्रों में अमावस्या तिथि का स्वामी पितृदेव को माना जाता है। अमावस्या सूर्य और चन्द्र के मिलन का काल है। इस दिन दोनों ही एक ही राशि में रहते हैं।

कुछ मुख्‍य अमावस्या
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भौमवती अमावस्या, मौनी अमावस्या, शनि अमावस्या, हरियाली अमावस्या, दिवाली अमावस्या, सोमवती अमावस्या, सर्वपितृ अमावस्या।

चेतावनी : इस दिन किसी भी प्रकार की तामसिक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। इस दिन शराब आदि नशे से भी दूर रहना चाहिए। इसके शरीर पर ही नहीं, आपके भविष्य पर भी दुष्परिणाम हो सकते हैं। जानकार लोग तो यह कहते हैं कि चौदस, अमावस्या और प्रतिपदा उक्त 3 दिन पवित्र बने रहने में ही भलाई है।
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Shani related

*शनिदेव पौराणिक, वैज्ञानिक एवं ज्योतिषीय दृष्टिकोण में (विस्तृत विवरण)* नवग्रह में शनि ऐसे ग्रह हैं जिसके प्रभाव से कोई व्यक्ति नहीं बचा है। ऐसा व्यक्ति तलाश करना असम्भव है जो शनि से डरता न हो। कुछ वर्ष पहले तक प्रत्येक व्यक्ति इनका नाम लेने से भी घबराता था परन्तु कुछ समय से इनकी पूजा- अर्चना बहुत ही अच्छे स्तर पर होने लगी है। आज व्यक्ति इनकी महिमा को समझने लगा है। उसके मन से इनका भय समाप्त हो रहा है। मैं सभी को यह परामर्श देता हूं कि किसी को भी शनिदेव से भयभीत होने की आवश्यकता नंहीं है। आप केवल अपने कर्म पर विश्वास रखें, बाकी का सब कुछ शनिदेव पर छोड़ दें। मेरा विश्वास है कि यदि आपके इस जन्म के व पिछले जन्म के कर्म अच्छे हैं तो आपको अवश्य ही शनिदेव का आशीर्वाद प्राप्त होगा क्योंकि आपके पिछले जन्म के कर्मों के प्रभाव से आपकी पत्रिका में शनिदेव की स्थिति अनुकूल होगी। इस अनुकूल स्थिति में आपको अवश्य ही शनिदेव का आशीर्वाद प्राप्त होगा पिछला जन्म किसी ने नहीं जाना है, इसलिये यदि आपकी पत्रिका में शनि की स्थिति अनुकूल नहीं है तो फिर आप इस जन्म में अच्छे कर्म करके शनिदेव को अपने अनुकूल कर सकते हैं। मेरे अनुभव व ज्योतिषीय ग्रंथों के अनुसार शनिदेव इस संसार के मुख्य न्यायाधीश हैं। भगवान शिव ने उन्हें यह जिम्मेदारी सोंपी है। इनकी अदालत में अपील की सुविधा है अर्थात् यदि आपसे कोई अपराध हुआ है तो आप अपना अपराध स्वीकार कर केवल जुर्माना भरकर अर्थात् पूजा-अर्चना व दान-धर्म करके शनिदेव का अनुग्रह प्राप्त कर सकते हैं। आप अफवाहों एवं अनर्गल बातों पर न जायें क्योंकि कुछ स्वयंभू ज्ञानियों ने जनमानस में शनिदेव का भय बैठा रखा है, जबकि शनिदेव जैसा ग्रह कोई भी नहीं है। यदि आप पाप कर रहे हैं तो शनिदेव आपसे सब कुछ छीनने में पल भर की देरी नहीं करेंगे। यदि आप अच्छे व धार्मिक कर्म में लीन हैं तो फिर वह आपको राजा बनाने में भी विलम्ब नहीं करेंगे। शनिदेव यह नहीं कहते कि आप उनकी बहुत ही पूजा-अर्चना करें तथा अपना कर्म छोड़कर उन्हें पूजें। शनिदेव केवल यह चाहते हैं कि आप केवल उनका स्मरण करे अर्थात् कोई भी कार्य करें तो उनका ध्यान रखें। आप उनका ध्यान रखेंगे तो फिर आपसे कोई भी गलत कार्य हो ही नहीं सकता है। ज्योतिष के पितामह महर्षि पाराशर ने अपने ग्रन्थ वृहत्पाराशर होरा शास्त्रम् में शनि के स्वरूप के लिये कहा है- कृशदीर्घतनुः सौरिः पिड्गदृष्यानिलात्मकः। रस्थूलदन्तोऽलसः पंड्गु खररोमकचो द्विजः ।। अर्थात् शनि का शरीर दुबला-पतला तथा लम्बा कद होता है। इनके मोटे दांत,आलसी स्वभाव के साथ रंग काला होता है। रोम एवं केश तीखे व कठोर तथा सदैव। नीचे दृष्टि किये हुए होते हैं। शनिदेव वायु प्रधान व तामस प्रकृति के साथ क्षुद्रवर्ण के हैं। पौराणिक परिचय 〰️〰️〰️〰️〰️〰️ पौराणिक कथा के आधार पर शनिदेव का जन्म सूर्य की पत्नी छाया के ग्ई हुआ है। कहते हैं कि इनके जन्म के समय जब इनकी दृष्टि सूर्य पर पड़ी तो उन्हें कुष्ठ रोग हो गया तथा उनके सारथी अरुण पंगु हो गये थे। शनि के भाई का नाम यम तथा बहिन का नाम यमुना है। शनिदेव बचपन से ही नटखट व शरारती थे। इनकी अपने भाई-बहिनों में से किसी से नहीं बनती थी सूर्यदेव ने सबके युवा होने पर सभी पुत्रो को राज्य बांट दिये परन्तु शनिदेव अपने पिता के इस कृत्य से खुश नहीं थे। वह सारा राज्य स्वयं अकेले ही चलाना चाहते थे। उन्होंने ब्रह्मा जी का तप आरम्भ कर दिया। जब ब्रह्मा जी शनिदेव की तपस्या से प्रसन्न हो गये तो उन्होंने शनिदेव से वर मांगले को कहा। शनिदेव ने उनसे वर मांगा कि मेरी शुभ दृष्टि जिस पर जाये उसका तो कल्याण हो तथा जिस पर मेरी क्रूर दृष्टि जाये उसका सर्वनाश हो जाये । ब्रह्मा जी तथास्तु कह कर अन्तर्ध्यान हो गये। इसके पश्चात् शनिदेव ने अपने सभी भाइयों का राज-पाट छीन लिया और अकेले ही राज चलाने लगे। शनिदेव के अन्य भाई उनके इस कृत्य से दुःखी होकर शिवजी के पास गये और सारी बात कहकर हस्तक्षेप का निवेदन किया। इस पर शिवजी ने शनिदेव को बुला कर समझाने का प्रयास किया। कहा कि तुम्हारे पास तो ब्रह्मा जी से प्राप्त बहुत बड़ी शक्ति है। तुम संसार में सदुपयोग करो। राज-पाट के चक्कर में क्यों समय नष्ट करते हो। शनिदेव बोले कि प्रभु मैं क्या कार्य करूं ? तब शिवजी ने शनिदेव व उनके भाई यमराज के मध्य कार्य सौंपे कि यमराज उन प्राणियों के प्राण हरेंगे जिनकी आयु पूर्ण हो चुकी है तथा शनिदेव संसार में लोगों को उनके कर्मों का फल देंगे। साथ ही शिवजी ने उन्हें और वर दिया कि तुम्हारी कुदृष्टि के प्रभाव से देवता भी नहीं बचेंगे तथा कलियुग में तुम्हारी अधिक महत्ता होगी। तभी से शनिदेव अपने कर्त्तव्य का पालन कर रहे हैं। एक कथा के अनुसार गणेश जी का शीश भी शनिदेव की दृष्टि से अलग हुआ था। एक बार जब गणेशजी का जन्मदिन मनाया जा रहा था तब उत्सव में शनि्देव भी सम्मिलित हुए थे परन्तु वह अपनी दृष्टि नीचे की ओर किये थे। माँ पार्वती ने उनसे कहा कि तुम्हें शायद उत्सव में खुशी नहीं है, इसलिये तुम दृष्टि नीचे किये हो। तब शनिदेव ने कहा कि माँ ऐसी बात नहीं है, मेरी दृष्टि होने पर कोई अनर्थ न हो जायथ इसलिये मैंने अपनी दृष्टि नीचे कर रखी है, परन्तु माँ पार्वती नहीं मानी। उन्होंने शान को दृष्टि ऊपर करने को निवश कर दिया। उनके कहने पर जैसे ही शनिदेव ने अपनी दृष्टि गणेशजी पर डाली, वैसे ही उनका शीश अलग हो गया। ऐसे ही एक बार शिवजी ने कहा कि शनिदेव मैं तुम्हारी दृष्टि की परीक्षा लेना।चाहता हूँ। इसलिये तुम कल प्रातः आकर मुझ पर दृष्टिपात करना, फिर देखते हैं। इस दृष्टि से तो आप भी नहीं बचेंगे क्योंकि यह आपका ही दिया वर है। यदि आप तुम्हारी दृष्टि का मुझ पर क्या प्रभाव आता है। इस पर शनिदेव कहा कि हे प्रभु, मेरी पर मेरी दृष्टि का प्रभाव नहीं आया तो फिर आपके ही वर की बदनामी होगी इस पर शिवजी ने कहा कि देखते हैं, लेकिन अभी जैसा मैंने कहा है, वैसा ही करो। दूसरे दिन शिवजी ने पार्वती से कहा कि ऐसा कौनसा स्थान है जहां शनिदेव मुझे न खोज पायें। इस पर पार्वती ने कहा कि आपको तो वह हर स्थान पर खोज लेंगे, इसलिये आप किसी जंगल में चले जायें। शिवजी जंगल में जाकर हाथिनी की योनि में विचरने लगे। इधर जब शनिदेव आये और माँ पावती से पूछा कि प्रभु कहां हैं तो उन्होंने अज्ञानता जताई। शनिदेव वापिस चले गये। दूसरे दिन शिवजी ने शनिदेव से कहा कि देखो तुम्हारी दृष्टि का मुझ पर कोई प्रभाव नही आया। शनिदेव ने कहा कि क्षमा करें प्रभु, आप पर तो मेरी दृष्टि का प्रभाव कल ही आ गया था, तभी तो आप मेरी दृष्टि के भय से जंगल में हाथिनी की योनि में विचरते रहे। यह मेरा अपराध है कि बिना किसी कारण के मैंने देवाधिदेव पर दृष्टिपात किया, इसलिये कलियुग में जो भी प्रातः आपके द्वादश ज्योतिर्लिंगं के नाम के उच्चारण के बाद मेरे दस नामों का उच्चारण करेगा, वह सदैव मेरा आशीर्वाद प्राप्त करेगा । मेरे स्वयं के अनुभव में यह आया है कि जो भी व्यक्ति द्वादश ज्योतिर्लिंग के बाद शनिदेव के दस नाम का मानसिक उच्चारण करता है, वह पूर्ण रूप से शनिदेव का आशीर्वाद प्राप्त करता है अर्थात् व्यक्ति पर आने वाले शनिकृत अशुभ फलों में कमी आती है। यहां पर मेरा इस कथा का मुख्य उद्देश्य यही है कि शनिदेव की दृष्टि का यह आशय नहीं है कि जब वह किसी को देखें तभी अशुभ फल आयेगा अपितु पत्रिका में शनि की स्थिति के अनुसार फल प्राप्त होता है। अब जब कथा चल रही है तो मैं आपको श्री हनुमानजी व शनिदेव की कथा भी बता देता हूँ। जब हनुमानजी ने लंका को जलाया था तब लंका काली नही हुई थी। जब हनुमानजी लंका के कारावास में गये तो शनिदेव वहां उलटे लटके थे। तब हनुमानजी ने उनसे पूछा कि तुम कौन हो तथा लंका जलने के बाद भी काली क्यों नहीं हो रही है? तब शनिदेव ने कहा कि मैं शनि हूँ। रावण ने मुझे योगबल के आधार पर बंद कर रखा है। यही कारण है कि लंका काली नहीं हो रही है क्योंकि में कैद हूँ तथा अग्निकाण्ड का कारक भी मैं ही हूं। इसलिये जब आप मुझे मुक्त करेंगे तो मेरी मात्र दृष्टिपात से ही लंका काली हो जायेगी। हुआ भी यही, जैसे ही हनुमानजी ने शनिदेव को मुक्त किया और शनिदेव ने लंका पर दृष्टिपात किया, वैसे ही लंका काली हो गई। हनुमानजी के द्वारा मुक्त करवाने से ऋणमुक्त होने के लिये शनिदेव ने हनुमानजी से वर मांगने को कहा। हनुमानजी ने यही कहा कि कलियुग में जो भी मेरी सेवा करे, उसे तुम अशुभ फल नहीं दोगे तब शनिदेव ने कहा कि ऐसा ही होगा। तभी से कहा जाता है कि जो व्यक्ति हनुमानजी की सेवा करता है वह शनिकृत कष्मों के मुक्त रहता है। मेरे अनुभव में यह बात किसी हद तक सही है कि हनुमानजी की सेवा से शनिकृत कष्ट पूर्ण समाप्त नहीं होते बल्कि उनमें कमी आती है क्योंकि शनिदेव भी। हनुमानजी के बहुत बड़े भक्त थे शनिदेव अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हैं और हनुमानजी भी अपने एक भक्त के लिये दूसरे भक्त को निराश नहीं करेंगे। हनुमान जी की सेवा से शनिकृत कष्टों में कमी अवश्य आती है लेकिन शनिदेव के पूर्ण शुभ फल। प्राप्त नहीं होते हैं क्योंकि शनि वचनबद्ध होने से अपने अशुभ फल में तो कमी करेंगे लेकिन शुभ फल भी नहीं देंगे। शनिदेव को तेल प्रिय होने की यह कथा है कि एक बार शनिदेव ने अपने मद में चूर होकर हनुमानजी को युद्ध के लिये ललकारा। प्रारम्भ में तो प्रभु ने मना किया लेकिन अधिक उकसाने पर उन्होंने शनिदेव को अपनी पूंछ में लपेट कर सारे ब्रह्माण्ड के तीन चक्कर लगाये। तब शनिदेव का शरीर पहाड़ों से टकरा-टकरा कर छिल गया। उन्होंने प्रभु से क्षमा मांगी। तब प्रभु हनुमानजी ने शनिदेव को मुक्त किया और अपने हाथों से शनिदेव के शरीर पर आये घावों पर पीड़ा से मुक्ति के लिये सरसों का तेल लगाया। तभी से शनिदेव को सरसों का तेल प्रिय है। इस प्रकार अन्य अनेक कथायें हैं, परन्तु यह हमारा विषय नहीं है। उपरोक्त कथायें शनिदेव को जानने के लिये आवश्यक थीं, इसलिये मैंने आपको बताई। शनिदेव वैज्ञानिक परिचय सौरमण्डल में शनि का स्थान एक सुन्दर ग्रह के रूप में है इसकी सूर्य से दूरी लगभग 7800,00,000 मील है। शनि बहुत मन्द गति से भ्रमण करता है। इसी मन्द गति के कारण शनि के अन्य नामों में मन्द व शनि हैं अर्थात् शनै-शनै चलने वाला। यह सौरमण्डल का सबसे कम गति का ग्रह है । यह लगभग 30 वर्षों में सूर्य की परिक्रमा करता है अर्थात् सम्पूर्ण भचक्र (12 राशियों) का भ्रमण करने में 30 वर्ष लगाता है। सूर्य के निकट इसकी गति लगभग 60 मील प्रति घण्टा हो जाती है। शनि का व्यास 85,150 मील मतान्तर से 71,500 मील है । यह अपनी परिधि पर लगभग 6.1 अंश पर झुका हुआ है। इसकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति पृथ्वी की अपेक्षा 94 गुणा अधिक है। पृथ्वी से शनि की दूरी लगभग 79,10,00,000 मील है। मतान्तर से 89,00,00,000 मील है। अब वास्तव में कुछ भी दूरी हो परन्तु शनि की गति इतनी धीमी है कि हम चाहकर भी इसका वास्तविक दूरी नहीं जान सकते हैं। शनि को सौरमण्डल का सबसे सुन्दर ग्रह माना जाता है। शनि के चारों ओर नील, वलय व कंकण नाम के तीन वलय हैं जो शनि के भ्रमण काल में अलग रहते हुए शनि के साथ ही भ्रमण करते हैं जिससे शनि ग्रह की सुन्दरता देखते ही बनती है। वैज्ञानिक आधार पर शनि के अतिरिक्त किसी भी ग्रह के वलय नहीं हैं। शनि के 10 चन्द्र है। अन्य ग्रहों की अपेक्षा शनि सबसे हल्का ग्रह है। की अपेक्षा अधिक ठण्डा ग्रह है तथा आकार में गुरु की अपेक्षा छोटा है। शनिदेव सामान्य परिचय नवग्रहों में शनि को सेवक का पद प्राप्त है। शनि को कालपुरुष का दुःख कहा जाता है। इस संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो शनि के प्रभाव से अछूता ना हो अथवा भय नहीं खाता हो। जिस प्रकार हम पत्रिका में शुक्र की स्थिति देखकर जीवन में आने व होने वाले सुखों का ज्ञान प्राप्त करते हैं उसी प्रकार हम पत्रिका में शनि की स्थिति से आने वाले दुःखों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। यह एक राशि में लगभग ढाई वर्ष तक रहते हैं। शनि को पश्चिम दिशा का स्वामित्व प्राप्त है। ज्योतिष में इन्हें नपुंसक लिंग का माना गया है। शनि वायु प्रधान ग्रह है। शनि के बुध, शुक्र मित्र, सूर्य, चन्द्र, मंगल शत्रु तथा गुरु सम ग्रह है। शनि के अन्य नामों में पंगु, असित, अर्किमन्द, रविज, यम, छायासुनु, कृष्णयम, छायात्मज, शनै, सूर्यपुत्र, भास्करि, कपिलाक्ष, अर्कपुत्र, तरणितनय, कोणस्थ, क्रूरलोचन, मन्द व शनैश्चराय हैं। शनि के लग्न/राशि अनुसार फलों का अध्ययन शनि वृद्ध, तीक्ष्ण, आलसी, वायु प्रधान, नपुंसक, तमोगुणी, और पुरुष प्रधान ग्रह है। इसका वाहन गिद्ध है। शनिवार इसका दिन है। स्वाद कसैला तथा प्रिय वस्तु लोहा है। शनि राजदूत, सेवक, पैर के दर्द तथा कानून और शिल्प, दर्शन, तंत्र, मंत्र और यंत्र विद्याओं का कारक है। ऊसर भूमि इसका वासस्थान है। इसका रंग काला है। यह जातक के स्नायु तंत्र को प्रभावित करता है। यह मकर और कुंभ राशियों का स्वामी तथा मृत्यु का देवता है। यह ब्रह्म ज्ञान का भी कारक है, इसीलिए शनि प्रधान लोग संन्यास ग्रहण कर लेते है। शनि सूर्य के पुत्र है। इसकी माता छाया एवं मित्र राहु और बुध हैं। शनि के दोष को राहु और बुध दूर करते हैं। शनि दंडाधिकारी भी है। यही कारण है कि यह साढ़े साती के विभिन्न चरणों में जातक को कर्मानुकूल फल देकर उसकी उन्नति व समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है। कृषक, मजदूर एवं न्याय विभाग पर भी शनि का अधिकार होता है। जब गोचर में शनि बली होता है तो इससे संबद्ध लोगों की उन्नति होती है। कुंडली की विभिन्न भावों में शनि की स्थिति के शुभाशुभ फल- शनि 3, 6,10, या 11 भाव में शुभ प्रभाव प्रदान करता है। प्रथम, द्वितीय, पंचम या सप्तम भाव में हो तो अरिष्टकर होता है। चतुर्थ, अष्टम या द्वादश भाव में होने पर प्रबल अरिष्टकारक होता है। यदि जातक का जन्म शुक्ल पक्ष की रात्रि में हुआ हो और उस समय शनि वक्री रहा हो तो शनिभाव बलवान होने के कारण शुभ फल प्रदान करता है। शनि सूर्य के साथ 15 अंश के भीतर रहने पर अधिक बलवान होता है। जातक की 36 एवं 42 वर्ष की उम्र में अति बलवान होकर शुभ फल प्रदान करता है। उक्त अवधि में शनि की महादशा एवं अंतर्दशा कल्याणकारी होती है। शनि निम्नवर्गीय लोगों को लाभ देने वाला एवं उनकी उन्नति का कारक है। शनि हस्त कला, दास कर्म, लौह कर्म, प्लास्टिक उद्योग, रबर उद्योग, ऊन उद्योग, कालीन निर्माण, वस्त्र निर्माण, लघु उद्योग, चिकित्सा, पुस्तकालय, जिल्दसाजी, शस्त्र निर्माण, कागज उद्योग, पशुपालन, भवन निर्माण, विज्ञान, शिकार आदि से जुड़े लोगों की सहायता करना है। यह कारीगरों, कुलियों, डाकियों, जेल अधिकारियों, वाहन चालकों आदि को लाभ पहुंचाता है तथा वन्य जन्तुओं की रक्षा करता है। शनि से अन्य लाभ शनि और बुध की युति जातक को अन्वेषक बनाती है। चतुर्थेश शनि बलवान हो तो जातक को भूमि का पूर्ण लाभ मिलता है। लग्नेश तथा अष्टमेश शनि बलवान हो तो जातक दीर्घायु होता है। तुला, धनु, एवं मीन का शनि लग्न में हो तो जातक धनवान होता है। वृष तथा तुला लग्न वालो को शनि सदा शुभ फल प्रदान करता है। वृष लग्न के लिए अकेला शनि राजयोग प्रदान करता है। कन्या लग्न के जातक को अष्टमस्थ शनि प्रचुर मात्रा में धन देता है तथा वक्री हो तो अपार संपति का स्वामी बनाता है। शनि यदि तुला, मकर, कुंभ या मीन राशि का हो तो जातक को मान-सम्मान, उच्च पद एवं धन की प्राप्ति होती है। शनि से शश योग- शनि लग्न से केंद्र में तुला, मकर या कुम्भ राशि में स्थित हो तो शश योग बनता है। इस योग में व्यक्ति गरीब घर में जन्म लेकर भी महान हो जाता है। यह योग मेष, वृष, कर्क, सिंह, तुला वृश्चिक, मकर एवं कुंभ लग्न में बनता है। भगवान राम, रानी लक्ष्मी बाई, पं. मदन मोहन मालवीय, सरदार बल्लभ भाई पटेल, आदि की कुंडली में भी यह योग विद्यमान है। विभिन्न लग्नों में शनि की स्थिति के शुभाशुभ फल मेष:🐐 इस लग्न में शनि कर्मेश तथा लाभेश होता है। इस लग्न वालों के लिए यह नैसर्गिक रूप से अशुभ है, लेकिन आर्थिक मामलों में लाभदायक होता है। वृष:🐂 इस लग्न में केंद्र शनि तथा त्रिकोण का स्वामी होता है। उसकी इस स्थिति के फलस्वरूप जातक को राजयोग एवं संपति की प्राप्ति होती है। मिथुन💏 इस लग्न में यदि शनि अष्टमेश या नवमेश होता है। यह जातक को दीर्घायु बनाता है। कर्क:🦀 इस लग्न में शनि अति अकारक होता है। सिंह:🦁 इस लग्न में यह षष्ठ एवं सप्तम घर का स्वामी होता है। इस स्थिति में यह रोग एवं कर्ज देता है तथा धन का नाश करता है। कन्या:👩 इस लग्न में शनि पंचम् तथ षष्ठ स्थान का स्वामी होकर सामान्य फल देता है। यदि इस लग्न में अष्टम स्थान में नीच राशि का हो तो व्यक्ति को करोड़पति बना देता है। तुला:⚖️ इस लग्न के लिए शनि चतुर्थेश तथा पंचमेश होता है। यह अत्यंत योगकारक होता है। वृश्चिकः🦂 इस लग्न में शनि तृतीयेश एवं चतुर्थेश होकर अकारक होता है, किंतु बुरा फल नहीं देता। धनु:🏹 इस लग्न के लिए शनि निर्मल होने पर धनदायक होता है, लेकिन अशुभ फल भी देता है। मकर:🐊 इस लग्न के लिए शनि अति शुभ होता है। कुंभ:🍯 इस लग्न के लिए भी यह अति शुभ होता है। मीनः🐳 शनि मीन लग्न वालों को धन देता है, लेकिन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। भाव के अनुसार शनि का फल प्रथम👉 भाव में शनि तांत्रिक बनाता है, किंतु शारीरिक कष्ट देता है और पत्नी से मतभेद कराता है। द्वितीय👉 भाव में शनि संपति देता है, लेकिन लाभ के स्रोत कम करता है तथा वैराग्य भी देता है। तृतीय👉 भाव में शनि पराक्रम एवं पुरुषार्थ देता है। शत्रु का भय कम होता है। चतुर्थ👉 भाव में शनि हृदय रोग का कारक होता है, हीन भावना से युक्त करता है और जीवन नीरस बनाता है। पंचम 👉 भाव में शनि रोगी संतान देता है तथा दिवालिया बनाता है। षष्ठ👉 भाव में शनि होने पर चोर, शत्रु या सरकार जातक का कोई नुकसान नहीं कर सकता है। उसे पशु-पक्षी से धन मिलता है। सप्तम👉 भाव में स्थित शनि जातक को अस्थिर स्वभाव का तथा व्यभिचारी बनाता है। उसकी स्त्री झगड़ालू होती है। अष्टम👉 भाव में स्थित शनि धन का नाश कराता है। इसकी इस स्थिति के कारण घाव, भूख या बुखार से जातक की मृत्यु होती है। दुर्घटना की आशंका रहती है। नवम्👉 भाव में शनि जातक को संन्यास की ओर प्रेरित करता है। उसे दूसरों को कष्ट देने में आनंद मिलता है। 36 वर्ष की उम्र में उसका भाग्योदय होता है। दशम👉 स्थान का शनि जातक को उन्नति के शिखर तक पहुंचाता है। साथ ही स्थायी संपति भी देता है। एकादश👉 भाव में स्थित शनि के कारण जातक अवैध स्रोतों से धनोपार्जन करता है। उसकी पुत्र से अनबन रहती है। द्वादश👉 भाव में शनि अपनी दशा-अतंर्दशा में जातक को करोड़पति बनाकर दिवालिया बना देता है। शनिदेव का गोचर फल एवं मुख्य कारक शनि का गोचर फल👉 शनि अपने संक्रमण काल में अर्थात् राशि में प्रवेश से लगभग 6माह पहले ही फल देने लगते हैं। शनि राशि के अन्तिम भाग में अर्थात् 20 अंश से 30 अंश के मध्य अधिक फल देते हैं। प्रत्येक जन्म राशि में शनि का गोचर निम्न प्रकार से रहता है। यहां मतान्तर के मत को कोष्टक में व्यक्त किया गया है अन्य कोष्टक में शनि की साढ़ेसाती अथवा ढैय्या अर्थात् लघु पनौती का समय भी दर्शाया गया है। जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे इसके अतिरिक्त शनि जब भी गोचर में अपनी राशियों अर्थात कुंभ, मकर व उच्च राशि तुला में तथा अश्विनी, मघा, मूल, विशाखा व पुनर्वस् नषत्रों में भ्रमण करेगा तो उसके शुभ फल में वृद्धि हो जाती है। भरणी, पुष्य, अनुराधा मृगशिरा, चित्रा व धनिष्ठा नक्षत्रों में अशुभ फल में वृद्धि होती है। शनि गोचर में 3-6 व 11वें भाव में अत्यधिक शुभ फल प्रदान करते हैं। जन्म राशि👉 रोग, कष्ट, ऋण वृद्धि (साढ़ेसाती का मध्य ढैय्या)। जन्म राशि से द्वितीय स्थान👉 क्लेश व आर्थिक हानि (साढ़ेसाती का अंतिम ढैय्या)। तृतीय स्थान👉 आर्थिक लाभ व पराक्रम वृद्धि। चतुर्थ स्थान 👉 शत्रु कष्ट ( लघु परनौती अर्थात् सामान्य ढैय्या)। पंचम स्थान👉 आर्थिक हानि, संतान से कष्ट अथवा हानि। षष्ठ स्थान👉 आर्थिक लाभ व प्रत्येक क्षेत्र में लाभ। सप्तम स्थान👉 अनिष्ट, जीवनसाथी को कष्ट । अष्ठम स्थान👉 शारीरिक कष्ट व दुर्घटना भय (लघु पनौती अर्थात सामान्य ढैय्या)। नवम स्थान👉 धर्म से विमुख व आर्थिक हानि तथा कार्य अवरोध। दशम स्थान👉 कर्म क्षेत्र में हानि,मानसिक कष्ट। एकादश स्थान👉 आर्थिक लाभ। द्वादश स्थान👉 प्रत्येक क्षेत्र में हानि व अत्यधिक व्यय (साढ़ेसाती का प्रथम ढैय्या) मुख्य कारक👉 शनि का रंग काला, शरीर से विकलांग, नेत्र सुन्दर परन्तु कातर, आकृति दीर्घ, नपुंसक लिंग, प्रकृति वात मतान्तर से वात व कफ, वस्त्र काले परन्तु जीर्ण, वृद्धावस्था, तमो गुणी, शिशिर ऋतु का आधिपत्य, पश्चिम दिशा का स्वामी, शूद्र वर्ण मतान्तर से क्षत्रिय, शनि श्रमिक वर्ग व दस्यु प्रवृत्ति का आश्रयदाता है। शनि का क्रीड़ा स्थल कूड़ाघर, शमसान व शराब खाना है, काल समय वर्ष, बलदायक काल सन्ध्या मतान्तर से रात्रि, रुचि वेदाभ्यास, विद्याध्ययन, कानून व कूटनीति, वार शनिवार, वाहन गिद्ध। महिष एवं कसैला रस व धातु लोहा है। शनि को नैसर्गिक पापी ग्रह माना जाता है। इनको कालपुरुष का दुःख व कष्ट माना जाता है। यह तृतीय, सप्तम व दशम भाव को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। इन्हें छठे व आठवें भाव का कारकत्व प्राप्त है। शनि को कुम्भ व मकर राशि का आधिपत्य प्राप्त है। यह तुला राशि में 20 अंश तक उच्च का, मेष राशि में 20 अंश तक नीच का व कुम्भ राशि में 20 अंश तक मूल त्रिकोणी होता है। ज्योतिष में शनि को दुःख व कष्ट का मुख्य प्रतिनिधि माना जाता है। शनि के वस्त्र काले, रत्न नीलम, देव यम, मतान्तर से ब्रह्मा अर्थात् विरंचि व भैरों, लोंक मृत्यु लोक, स्थान ऊसर भूमि, पृष्ठोदयी। शनि पत्रिका के अष्टम भाव में अन्य ग्रहों की अपेक्षा विपरीत फल प्रदान करता है। उदाहरण के लिये इस भाव में शनि की स्थिति शुभ व बली है तो शनि का फल अशुभ प्राप्त होगा यदि अशुभ व निर्बल स्थिति में है तो आपको शुभ फल प्राप्त होता है जैसा कि अन्य ग्रहों के साथ नहीं होता है। यह भाव शनि का कारक भाव है, इसलिये शनि की स्थिति के विपरीत फल प्राप्त होता है। शनि कमजोर है तो आपको शुभ फल तथा बलशाली है तो अशुभ फल प्रदान करेगा शनि आलस्य, नसें, आय, चमड़ा, रुकावट, हाथी, अत्यधिक कष्ट, रोग, विरोध, दुःख, मरण, अग्निकाण्ड. स्त्री से सुख, गधा, खच्चर, विकृत अंग वाले, मजदूर वर्ग, यमराज का पुजारी, द्वासवृत्ति, डरावनीसूरत, लोहा, मणि, अधार्मिक कृत्य, मिथ्या भाषण, दिन के अन्तिम भाग में बलवान, हरामी, गोलक, लगंड़ापन, चित्त की कठोरता, नपुंसक, वन में भ्रमण करने वाल, नागलोक, हड्डी-पसली, मांसपेशी, गाम्भीर्य, घुटने, नाखून, संवेदनशीलता, निराशा, गूढ़ता, सन्यास, यन्त्रणा, कृपणता, अपमान, दरिद्रता, दोषारोपण, अधर्म, शोक, कारागार, यातायात, शराब, अचल सम्पत्ति, छोटे दुकानदार कल-कारखाने, मशीनी उद्योग, स्थानीय संस्थाओं के कार्यकर्ता, कृषि द्वारा जीवन निर्वाह करने वाले किसान, क्रोध, गन्दा कपड़ा, गन्दे विचार, वृद्धावस्था, क्रूर कर्म, भैंस, बकरा, कामानन्द इच्छुक, कुत्ता, छोटी दूसरे कुल की विद्या, सीसा धातु, शक्ति का दुरूपयोग, भूमि पर भ्रमण, कठोरता डर, लम्बा निषाद, तामस गुण, विष, कठोरता, पुराना तेल, अटपटे बाल, पतन, युद्ध, पिता प्रतिनिधि, चाण्डाल, दासी, शल्य विद्या, दुष्ट से मित्रता, चिर स्थायी वायु, घर आदि का मुख्य कारक है। इसके साथ ही शीन तेल, नाग, तिल, काली उड़द, नमक, बच, यश व पुलिस पर भी विशेष आधिपत्य है। बलवान शनि की कृपा से व्यक्ति को विशिष्टता, यश, लोकप्रियता तथा सार्वजनिक जीवन में समृद्धि प्राप्त होती है। जिस प्रकार सौरमण्डल में शनि का स्थान सबसे अन्त में है। उसी प्रकार गुणों में भी सबसे अन्त में स्थान है। यही कारण है कि शनि को निम्न वर्ग का प्रतिनिधि माना गया है। इस कारण से वर्ण में भी इसको शूद्र वर्ण प्राप्त है। सुर्य से शनि की स्थिति काफी दूर है। इस दूरी के प्रभाव से ही शनि तक सूर्य की किरणें नहीं जाती हैं। इसलिये यह विद्याहीन, काला, प्रकाशहीन व मूर्ख माना गया है। इस कारण से ही शनि जिनकी पत्रिका में कमजोर अथवा पापी होता है, वह लोग विद्याहीन व मजदूर वर्ग के होते हैं। शनि पर सूर्य की किरणें न पंहुचने के कारण इसको अपूर्ण, हीन व अभाव का द्योतक माना जाता है। प्रकाश के अभाव से कई रोगों की भी उत्पति होती है। इसलिये इसको रोग का भी कारक माना गया है। शनि की मन्द गति के कारण इसको मन्द व पंगु भी कहा गया है। मनुष्य चलता पैरों से है, इसलिये शनि का पैरों से भी बहुत ही घनिष्ट सम्बन्ध है। इसी आधार पर मेरे अनुभव से व्यक्ति के पैरों से पत्रिका में शनि की स्थिति का पता चल जाता है। शनि के निर्बल अथवा क्षीण होने की स्थिति में ही जातक के पैरों में कष्ट रहता है। हमारे शरीर में स्नायु व पेट पर शनि का विशेष प्रभाव होता है। शनि से दूसरे कुल अथवा अंग्रेजी भाषा का ज्ञान, आयु, शारीरिक बल, उदारता, मोक्ष, विपत्ति, योगाभ्यास, प्रभुता, ऐश्वर्य, ख्याति, नौकरी व मूर्छा आदि का भी विचार किया जाता है। पत्रिका में शनि के माध्यम से हम यह भी देखते हैं कि जातक को अपने जीवन में कब और कितने दुःखों का सामन करना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त जातक की आयु, मृत्यु, चोरी, मुकदमा, राजदण्ड, फांसी, घाटा, दिवाला, शत्रुता आदि का भी ज्ञान किया जाता है। कुंडली मे अशुभ शनि, नक्षत्र एवं प्रतिनिधि, एवं शनि का बल अशुभ शनि👉 सामान्यतः शनि के पत्रिका में पापी होने पर जातक को स्नायु रोग, दांत में कष्ट, बुखार, पुराना रोग, शीत ज्वर, कोढ़, मानसिक रोग, कमर से निचले हिस्से में पीड़ा, पागलपन, जलोदर, संधिवात, उदरवात तथा किसी भी रोग का दीर्घ काल तक ठीक न होना जैसे रोग अधिक होते हैं। शनि अधिक पापी अथवा पीड़ित हो तो जातक अत्यधिक आलसी किस्म का तथा किसी भी कार्य को बहुत ही मन्द गति से करने वाला होता है। मैंने शनि के शोध में यह देखा है कि यह पीड़ित अथवा पापी होने पर केवल आलसी तथा निम्न वर्ग के लोगों से अधिक मेल-मिलाप एवं किसी के गलत कार्य में सहयोग देने वाला बनाता है। मैने एक बात और देखी कि पत्रिका में यदि शनि लग्नेश है अथवा त्रिषडाय भाव में अथवा अष्टम भाव में बैठा है तो जातक अत्यधिक शुभ कर्म करने वाला होता है। यदि किसी शुभ ग्रह का भी प्रभाव हो तो फिर शनि की शुभता में कहीं कमी नहीं होती है। शनि जैसा कोई अन्य शुभ ग्रह हो ही नहीं सकता है। शनि के नक्षत्र व प्रतिनिधि👉 सत्ताइस नक्षत्रों में शनि पुष्य, अनुराधा व उत्तरा भाद्रपद नक्षत्रों का स्वामी होता है। बच्चे के जन्म के समय चन्द्र यदि इनमें से किसी नक्षत्र में हो तो जातक की जन्मकालीन दशा का स्वामी शनि होता है। शनि का प्रतिनिधि रत्न नीलम है। लीली, लीलिया, जामुनिया, नीला मार्का तथा नीला अथवा काला हकीक आदि उपरत्न होते हैं। शनि का बल👉 शनि स्वराशि अर्थात् मकर व कुम्भ राशि के साथ स्व वर्ग, अपनी उच्च राशि तुला, शनिवार, सप्तम भाव, अपनी दशा, भुक्ति व राशि के अन्त अर्थात् 20 अंश से 30 अंश तक बली होता है। इनके अतिरिक्त शनि दक्षिणायन, स्वद्रेष्काण व कृष्णपक्ष में प्रत्येक राशि में बली होता है। मंगल के साथ शनि के बल में वृद्धि होती है। किसी वक्री ग्रह अथवा चन्द्रमा के साथ चेष्टाबली होता है। शनि पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, अभिजित व श्रवण नक्षत्रों में भी बली होता है। शनि अपना प्रभाव 35 से 39 वर्ष की आयु तक दिखाता है। पत्रिका में शनि को सामाजिक, प्रजातांत्रिक मूल्यों का प्रतिनिधि माना जाता है। इसलिये राजनेताओं की पत्रिका में शनि के माध्यम से सफलता-असफलता का ज्ञान किया जाता है। विवाह के समय भी मांगलिक पत्रिकाओं में शनि की उपस्थिति का विशेष ध्यान रखा जाता है। शनिदेव की साढ़ेसाती एवं ढैया शनि की साढ़ेसाती व ढैय्या👉 वैसे तो इस संसार का प्रत्येक प्राणी शनिदेव के नाम से ही भय खाता है परन्तु जब कोई दैवज्ञ जातक को यह बताता है कि आप पर तो साढ़ेसाती अथवा ढैय्या चल रहा है तो फिर वह भय से जकड़ जाता है। मैंने अपने अनुभव में यह देखा है कि कई लोग केवल धन के लालच में जातक को परेशान देखते ही शनि की साढ़ेसाती अथवा ढैय्या का भय दिखा देते हैं। इसलिये मेरे मन में यह विचार आया कि जब आप हमारे लेखों से इतना ज्ञान प्राप्त कर रहे है तो क्यों न शनि की साढ़ेसाती व ढैय्या का भी ज्ञान प्राप्त किया जाये मुख्य रूप से मैं आप को बता दूं कि जिनकी दीर्घायु होती है, उनके जीवन में कुल तीन साढ़ेसाती आती हैं, क्योंकि शनि 30 वर्षों के बाद ही एक राशि में आता है। यह भी आवश्यक नही है कि शनि की साढ़ेसाती अथवा ढैय्या आपको कष्ट ही देंगे, क्योंकि मैंने अपने अनुभव में ऐसे लोगो को भी देखा है कि जिन्होंने शनि की साढ़ेसाती में इतनी उन्नति की है, जितनी उन्होंने अपने पूरे जीवन में नहीं की क्योंकि शनि की साढ़ेसाती अथवा ढैय्या का पूर्ण फल आपकी पत्रिका में शनि की स्थिति से मिलता है। शनि की साढ़ेसाती को बृहद् कल्याणी अथवा दीर्घ पनौती भी कहते हैं तथा ढैय्या को लघु कल्याणी अथवा लघु पनौती भी कहते हैं। चतुर्थ राशि वाले ढैय्या को कण्टक शनि भी कहते हैं। ग्रन्थों के आधार पर यह शनि की सबसे कष्टकारक स्थिति होती है। मेरे अनुभव में जैसा मैंने कहा कि पत्रिका में शनि की स्थिति के आधार पर ही फल प्राप्त होते हैं अस्तु, अष्टम राशि के शनि वाले ढैय्या को अष्टम शनि भी कहते है । उदाहरण के लिये यदि आपकी पत्रिका में शनि 3-6 अथवा 11वे भाव में है तो फिर शनिदेव आपको इतना देंगे जितनी आपने आशा भी नहीं की होगी। अब मैं आपको बताता हूं कि शनि की साढ़ेसाती अथवा ढैय्या आते कैसे हैं। स्थूल रूप से उदाहरण के लिये जैसे आपकी मिथुन राशि है तो गोचरवश शनि जब वृषभ राशि अर्थात् आपकी राशि से पिछली राशि में आयेंगे तब आपको शनि की साढ़ेसाती का प्रथम चरण (प्रथम ढैय्या) आरम्भ होगा जो लगभग ढाई वर्ष चलेगा इसके बाद शनि आपकी राशि में अर्थात् मिथुन राशि में आयेंगे फिर साढ़ेसाती का मध्य ढैय्या चलेगा। यहां भी लगभग इतने समय ही रहेंगे। इसके बाद शनि आपकी राशि से अगली राशि (कर्क राशि) में आयेंगे तो आपकी साढ़ेसाती का अन्तिम ढैय्या होगा तथा जब शनिदेव आपकी राशि से अगली राशि में अर्थात् सिंह राशि में प्रवेश करेंगे तो आपकी साढ़ेसाती समाप्त हो जायेगी। इस प्रकार आपकी राशि से पिछली राशि में प्रवेश से आपकी राशि की अगली राशि के निकास तक आपको साढ़ेसाती चलेगी जो लगभग साढ़े सात वर्ष रहती है। ज्योतिषीय गणित के आधार पर साढ़ेसाती इस प्रकार से लगती है कि जब भी शनि गोचरवश आपकी राशि अर्थात् जन्मकालीन चन्द्र के अंश, कला व विकला में 330 अंश जोड़ने पर शनि प्रवेश करें तो आपको साढ़ेसाती आरम्भ होगी। इसी प्रकार जन्मस्थ चन्द्र के अंश, कला व विकला में 60 अंश जोड़े जाने पर जो भी राशि आयेगी तो गोचरवश शनि के आने पर आपकी साढ़ेसाती समाप्त होगी। अब मैं आपको ढैय्या का गणित समझाता हूं । यहां हम उदाहरण के लिये मिथुन राशि लेते हैं। जैसे ही शनि का गोचरवश कर्क राशि से निकास कर सिंह राशि में प्रवेश होगा तो आपकी साढ़ेसाती समाप्त होगी। अब लगभग ढाई वर्ष के लिये शनि आपको अच्छा प्रभाव देंगे क्योंकि गोचर में शनि आपकी राशि से तृतीयस्थ हैं तथा जैसे ही शनि सह राशि से निकल कर कन्या राशि में प्रवेश करेंगे तो आपको कण्टक शनि अर्थात् लघु पनौती अर्थात् ढैय्या आरम्भ होगा जो लगभग 30 माह चलेगा। 30 माह पश्चात् शनि तुला में प्रवेश करेंगे तो आपका दैय्या समाप्त होगा। इसी प्रकार जब शनि मकर राशि में प्रवेश करेंगे तो आपको अष्टम शनि अर्थात् लघु पनौती आरम्भ होगी। यह भी आपकी राशि पर लगभग 30 माह रहेगी। इस प्रकार लगभग 20 वर्ष निकल जायेंगे। फिर 10 वर्ष पश्चात् आपको पुनः साढेसाती आरम्भ हो जायेगी। ज्योतिष के अनुसार किसी के जीवन में बचपन में साढ़ेसाती आती है तो उसका प्रभाव उसके माता-पिता पर अधिक आता है। द्वितीय साढ़ेसाती का प्रभाव जातक के व्यवसाय पर अधिक आता है तथा तृतीय व अन्तिम साढ़ेसाती का मतलब ही होता है। जीवन की समाप्ति अब यह बात अलग है कि जैसे किसी का जन्म तब होता है जब गोचरवश शनि उस राशि से तुरन्त निकला हो तो फिर उसको तो साढ़ेसाती लगभग 28-29 वर्ष की आयु में आयेगी तो इसका प्रभाव उसके व्यवसाय पर अधिक आयेगा। ज्योतिष अनुसार साढ़ेसाती के प्रत्येक चरण का अलग-अलग राशि पर अलग-अलग। प्रभाव आता है। अब मैं आपको प्रत्येक राशि में कौन से चरण पर क्या प्रभाव आता है, यह बताने का प्रयास करता हूं। मुख्यतः आप यही माने की साढ़ेसाती का पूर्ण फल पत्रिका में शनि की स्थिति के अनुसार आता है। मेरा अनुभव कहता है कि यदि आपकी पत्रिका में चाहे शनि की स्थिति अधिक ठीक न हो अथवा बहुत ही खराब हो तो आप साढ़ेसाती अथवा ढैय्या के समय में श्री शनिदेव का स्मरण कर तथा उनकी प्रतिनिधि वस्तुओं का दान कर कष्टों से पूर्ण मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। साथ ही जैसा लोग कहते हैं कि आप तो हनुमानजी की सेवा करो फिर शनिदेव आपसे कुछ नहीं कहेंगे। मैं इस बात से पूर्णतः सहमत नहीं हूं हांलाकि मैं भी हनुमानजी का सेवक हूं तथा मैं यह नहीं कहता कि यह बात गलत है यह सही है किन्तु जैसा मैंने पिछले लेखों में कहा कि हमें शनिदेव से बचना ही नहीं है, बल्कि उनसे लाभ भी लेना है। हम मान लेते हैं कि शनिदेव अपनी वचनबद्धता से हनुमानजी की सेवा करने से अपना रौद्र रूप नहीं दिखायेंगे तो फिर आप क्या यह समझते हैं कि हनुमानजी भी शनिदेव से कहेंगे कि चाहे कोई कितने भी पाप भी कर ले, यदि वह मेरी सेवा करे तो तुम उसे कष्ट न देना ? मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं कि यदि आप पर साढ़ेसाती का कष्ट हो अथवा नहीं, परन्तु यदि आप श्री हनुमान जी व शनिदेव की संयुक्त सेवा करें तथा पीपल की सेवा के साथ शनि की वस्तुओं का दान भी करें तो फिर कुछ ही समय में अपने जीवन में परिवर्तन देखेंगे। मेरा विश्वास है कि आप इस सेवा से मानसिक, सामाजिक, भौतिक व आर्थिक रूप से इतनी अधिक उन्नति करेंगे जितनी आपको उम्मीद भी नहीं होगी। यहा पर आवश्यकता केवल विश्वास तथा किये जाने वाले उपायों को चुनने व समझने का है क्योंकि यह आवश्यक नहीं है कि तेल दान सभी को लाभ दे हो सकता है उनका केवल दीपदान ही लाभ दे, यह सब कुछ शनि को पत्रिका में पहचाने जाने की है। प्रत्येक राशि मे साढ़ेसाती के प्रत्येक चरण का प्रभाव राशि प्रथम चरण द्वितीय तृतीय चरण (ढाई वर्ष) (ढाई से (पांच सेसाढ़े पांच वर्ष) सात वर्ष) मेष सम अशुभ लाभदायक वृषभ अशुभ शुभ लाभदायक मिथुन शुभ सम अशुभ कर्क सम अशुभ शुभ सिंह अशुभ अधिक सम अशुभ कन्या अशुभ अधिक सम अशुभ तुला सम सम अशुभ वृश्चिक सम अधिक अशुभ अशुभ धनु अशुभ सम लाभ मकर अशुभ अधिक शुभ अशुभ कुंम्भ सम अधिक अत्यधिक अशुभ अशुभ मीन अशुभ अशुभ अत्यधिक अशुभ शनि की महादशा में ग्रहों की अंतर्दशा का फल शनि की महादशा में शनि की अंतर्दशा का फल कुंडली मे शनि स्वराशि, उच्च और मूल त्रिकोण का हो अथवा १, ४, ५, ७, ९, १०, ११ वें भाव में स्थित हो, तो इस दशा में सम्मान, ख्याति, शासन-प्राप्ति, उच्च-पद की प्राप्ति, विदेशी भाषाओं का ज्ञान, स्त्री-पुरूष की वृद्धि होती है। नीच या पाप युक्त होकर शनि ६, ८, १२ वें भाव में हो, तो रक्तस्त्राव, अतिसार, गुल्म रोग होता है। द्वितीयेश और सप्तमेश शनि हो, तो अशुभ है। वर्गोंत्तपी हो तो जातक को जीवनपर्यन्त सुख और वैभव से हीन नहीं होने देता । हर प्रकार के वाहन,उच्च कोटि के आवास तथा अनेक दास-दासियां सेवा को उपलब्ध रहती है । ग्रामसभा,पालिका आदि का सदस्य बनकर प्रधान पद पा लेता है। खालों, पशुओं, तेल, कोयला, लोहा और वैज्ञानिक उपकरणों के व्यवसाय से लाभ मिलता है। अशुभ शनि की अंतर्दशा चल रही हो तो हर कार्य से विफलता मिलती है और कार्य-व्यवसाय में हानि होती है । बन्धु-बान्धवों से बैर बढता है, स्त्री-पुत्र और मृत्यु द्वारा कष्ट मिलता है । जातक में ईष्यों और द्वेष की भावना बढ जाती है, नीच जनों की संगति से लोकोपवाद, एकान्तवास करने की इच्छा बलवती हो जाती है। दशा का आदिकाल जहां अति कष्टदायक होता है वहीं दशा के अन्त में कुछ सुखानुमूति भी होती है। शनि की महादशा में बुध की अंतर्दशा का फल शनि महादशा में उच्च राशि, स्वराशि, शुभ ग्रहयुफ्त बुध की अन्तर्दशा चले तो जातक निर्मल मति और धर्मशील हो जाता है । साधु-सन्यासियों और विद्वानो का सत्संग होता है । नौकरी में ही पद और वेतन में वृद्धि होती है । स्वास्थ्य अधिकार ठीक ही रहता है, लेकिन यदा-कदा कफ आदि से पीडा हो ही जाती है । आप्तजनों और बन्धुवर्ग का सहयोग मिलता है । रसीले व स्निग्ध पदार्थ भोजन के लिए मिलते हैं । विवेक, वृद्धि व कौशल से शत्रुओं का पराभव होता है। प्राय: शनि की अशुभ दशा से पीडित जातक सुख और शान्ति का अनुभव करते हैं ।यदि बुध अशुभ प्रभावी हो तो अपनी अंतर्दशा में जातक को शत्रु से भयभीत तथा अज्ञात पीडा से विकल रखता है । जातक इतना उद्विग्न हो जाता है कि उसे सुस्वादु भोजन और रमणीक स्थान तथा प्रेममय वातावस्पा भी रुचिकर नहीं लगता। शनि की महादशा में केतु की अंतर्दशा का फल केतु यदि केतु शुभ ग्रह से युक्त या दुष्ट होकर योगकाकरक ग्रह से सम्बन्ध करता हो तो शनि महादशा में अपनी अन्तर्दशा आने पर जातक को लेशमात्र ही शुभ फल देता है। जातक का कार्य-व्यवसाय शिथिल पड जाता है तथा किए गए श्रम का पारिश्रमिक बहुत थोडा मिलता है । नौकरी से पद एवं वेतनवृद्धि में विघ्न जाते है, नीव जनों का संग करता है, भोजन की व्यवस्था दूसरों पर निर्भर रहती है । अनेक रोग घेर लेते है और पूर्चार्जित धन चिकित्सा पर व्यय हो जाता है। वायु रोग, सर्वाग शूल, जिगर-तिल्ली, कुक्षिपीड़ा एवं मन्दाग्नि रोग से देहपीड़ा मिलती है। जातक पूर्व में मिले बुध अन्तर्दशा के शुभ फलों को याद करता है। निर्बल केतु की अन्तर्दशा से कुछ शुभ फल अवश्य अनुभव में आते है । शनि की महादशा में शुक्र की अंतर्दशा का फल शुक्र शनि महादशा में उच्च राशि, स्वराशि, शुभ ग्रहयुक्त व दृष्ट एव केन्द्र व त्रिकोण में स्थित शुक्र की अंतर्दशा हो तो जातक के व्यवसाय में वृद्धि होती है तथा प्रचुर धन कमाता है। नौकरी में हो तो पदवृस्जि होती है। कलाकार, नाटककार, अपनी कला के माध्यम से धन और मान अजित कर लेते है। उच्चधिकारियों का प्रिय बन उनके ह्रदय में अपना स्थान बना लेता है, किसी नवविवाहिता से प्रेम-प्रसंग बन सकता है, ग्राम-समाज में अवस्था एव स्थिति के अनुरूप आदर-सत्कार प्राप्त होता है। अशुभ शुक की अन्तर्दशा में जातक से कामवासना अत्यधिक बढ़ जाती है, पस्त्रीगमन, वेश्यागमन, रेस, सट्टा, लाटरी आदि में संचित धन व्यय कर दरिद्र हो जाता है । खाने के भी लाले पड़ जाते है । यहा तक कि अपनी क्षुघापूर्ति के लिए भिक्षा का सहारा लेता है । शनि की महादशा में सूर्य की अंतर्दशा का फल सूर्य शनि महादशा में उच्च राशि, स्वराशि, षडवलयुक्त सूर्य की अंतर्दशा चले तो जातक वैभवपूर्ण जीवनयापन के साधन जुटा लेता है । धन-धान्य की वृद्धि और वाहन, वस्त्रालंकार तथा पशुधन प्राप्त होता है। भाषाविद इस दशाकाल में निश्चित रूप में मान-सम्मान एव धनार्जन कर लेते है । शनि और सूर्य परस्पर नैसर्गिक शत्रु हैं, इसलिए अशुभ सूर्य की दशा में जातक को घोर कष्ट सहन करने होते हैं । कठिन परिश्रम करने वाले विद्यार्थी कठिनता से उत्तीर्ण होने योग्य अंक प्राप्त कर पाते हैं, अन्यथा अनुत्तीर्ण ही होना पड़ता है। व्यर्थ में लोगों से झगडा होता है, पिता से अनबन और पैतृक सम्पत्ति से वंचित होने से मन सन्तप्त होता है । काला ज्वर एवं मन्दाग्नि रोग से पीडा मिलती है । शनि की महादशा में चंद्र की अंतर्दशा का फल चन्द्र शनि महादशा में उच्च राशि, स्वराशि, शुभ ग्रहों विशेषत: बृहस्पति से दुष्ट या बृहस्पति से केद्रस्थ बली चन्द्रमा की अंतर्दशा चलती है तो जातक को आरोग्य लाभ मिलता ,है सौभाग्य में वृद्धि होती है। प्रतियोगी परीक्षा में उत्तीर्ण हो उच्च पद या लेता है, माता का विशेष और पिता का स्वल्प सुख मिलता है । स्त्री और स्थान का सुख मिलता है एव इनके कारण यश में वृद्धि होती है । सन्तानोत्पत्ति का उत्सव धूमधाम से मनाकर लाभ अर्जित करता है। अशुभ और क्षीण चन्द्रमा की दशा में स्त्री-पुत्र से कलह होती है, बन्धुबर्ग एव इष्ट-मित्रों से अनबन, वासनाजनित कर्मों के कारण लोकोपवाद एव सम्मान की हानि होती है। मानव को अपना जीवन भार लगने लगता है । कुसंगति के कारण शुकक्षय, मधुमेह, स्वप्नदोष, वात के कारण गर्दन में जकडन से पीडा तथा शीत ज्वर आदि व्याधिया देह को कृशकाय बना देती हैं । शनि की महादशा में मंगल की अंतर्दशा का फल मंगल यदि मंगल कारक, उच्चादि बल एवं शुभ ग्रह से युक्त एव दृष्ट हो तो अपनी अन्तर्दशा के आरम्भ में शुभ फल देता है । सैन्य और पुलिसकर्मी इस दशाकाल में लाभान्वित होते है । पदोन्नति मिलती है, घोषित संशोधित वेतन का पिछला पैसा मिल जाता है । कृषि कार्य, भ्रातृवर्ग से ताभ जिता है। नए-नए उद्योग लगाकर व्यापार में वृद्धि कर लेता है। बुद्धि भ्रममय और क्रोघावेगपूर्ण हो जाती है और किए गए कार्यो में सफलता सन्देहास्पद रहती है। जब पाल अशुभ, नीव या अस्त हो तो मन में विकलता बनी रहती है, कार्य-व्यवसाय में अवनति, राज-सम्मान से अपमान और निरादर होता है । लोगों से व्यर्थ में झगड़ा-टंटे होते है, न्यायालय में चल रहे केसों में हार होती है, पदोन्नति होते-होते रुक जाती है। रक्तविकार, रक्तचाप और भगंदर आदि से पीडा क्या विद्युत व विमान दुर्घटना में चोट लगती है। कोई-न-कोई रोग-व्याधि जातक को घेरे रहती है। *शनि की महादशा में राहु की अंतर्दशा का फल* राहु यदि शनि की महादशा में राहु की उपदशा चल रही हो तो मिश्रित फल प्राप्त होते है । जातक को आकस्मिक रूप से धन लाभ होता है । सट्टा, लाटरी, घूतकीड़ा से लाभ होता है । देव-बाह्मण के प्रति जातक थोड़ी श्रद्धा रखता है तथा दान-धर्म की राह पर चलता है |अशुभ राहु की अन्तर्दशा में अनेक कष्ट झेलने पड़ते है। कार्य-व्यवसाय समाप्तप्राय हो जाता है, वात वेदना से सर्वाग शूल होता है और जातक ऐसे जीवन की अपेक्षा मृत्यु को अच्छा समझता है। मन की व्यथा के कारण इधर-उधर भटकता है कुपथ्य के कारण मन्दाग्नि और अपच जैसे रोग हो जाते हैं, जो अनेक व्याधियों के जनक बन जातक को सराय देते है। सारांश यह है कि इस दशा में जातक एक दृष्ट से छुटकारा नहीं पाता कि दूसरा प्रारम्भ हो जाता है। शनि की महादशा में बृहस्पति की अंतर्दशा का फल शुभ बृहस्पति की अंतर्दशा आने पर जातक राहु की अंतर्दशा के दुखों को विस्मृत कर सुख की सास लेता है। जातक की वृति धार्मिक और सत्कर्मो की ओर तथा, बुद्धि सात्विक बनती है। वह तन्त्र सरीखे गूढ़ विषय का ज्ञान प्राप्त करता है अथवा उसके प्रति आकर्षित होता है। पुत्राथी को पुत्र, धनार्थी को धन व ज्ञानार्थी को ज्ञान प्राप्त हो जाता है। घर में अनेक मंगल कार्य सम्पन्न होते है । जातक सत्कर्मी होकर ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करता है। पापी, बलहीन, अशुभ प्रमापी बृहस्पति की अन्तर्दशा में सन्तानबाधा, पत्नी से वियोग, स्थानभ्रष्टता, पदभ्रष्टता आदि फल मिलते हैं । किसी प्रियजन की मृत्यु के समाचार से मन को सन्ताप, कर्म हानि, विदेशवास तथा कोढ़ और चमड़ी के रोगों से देहपीड़ा मिलती है । *शनि दोष निवारण के उपाय (भाव/लग्न अनुसार* कुंडली के प्रत्येक भाव/लग्न में उपस्तिथ शनि के कष्ट निवारण के उपाय 👉 प्रथम भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय :- 1👉 अपने ललाट पर प्रतिदिन दूध अथवा दही का तिलक लगाए। 2👉 शनिवार केदिन न तो तेल लगाए और न ही तेल खाए। 3👉 तांबे के बने हुए चार साँप शनिवार के दिन नदी में प्रवाहित करे। 4👉 भगवान शनिदेव या हनुमान जी के मंदिर में जाकर यह प्रथना करे की प्रभु ! हमसे जो पाप हुए हैं, उनके लिए हमे क्षमा करो, हमारा कल्याण करो। 5👉 जब भी आपको समय मिले शनि दोष निवारण मंत्र का जाप करे। दूसरे भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय 👇 1👉 शराब का त्याग करे और मांसाहार भी न करे। 2👉 साँपो को दूध पिलाए कभी भी साँपो को परेशान न करे , न ही मारे। 3👉 दो रंग वाली गाय / भैस कभी भी न पालें। 4👉 अपने ललाट पर दूध / दही का तिलक करे। 5👉 रोज शनिवार को कडवे तेल का दान करें। 6👉 शनिवार के दिन किसी तालाब, नदी में मछलियों को आटा डाले। 7👉 सोते समय दूध का सेवन न करें। 8👉 शनिवार के दिन सिर पर तेल न लगाएं। तीसरे भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय 👇 1👉 आपके घर का मुख्य दरवाजा यदि दक्षिण दिशा की ओर हो तो उसे बंद करवा दे। 2👉 रोज शनि चालीसा पढ़ें तथा दूसरों को भी शनि चालीसा भेंट करें। 3👉 शराब का त्याग करे और मांसाहार भी न करे। 4👉 गले में शनि यंत्र धारण करें। 5👉 मकान के आखिर में एक अंधेरा कमरा बनवाएँ। 6👉 अपने घर पर एक काला कुत्ता पाले तथा उस का ध्यान रखें। 7👉 घर क अंदर कभी हैंडपम्प न लगवाएँ। चतुर्थ भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय 👇 1👉 रात में दूध न पिये। 2👉 पराई स्त्री से अवैध संबंध कदापि न बनाएँ। 3👉 कौवों को दना खिलाएँ। 4👉 सर्प को दूध पिलाएँ। 5👉 काली भैस पालें। 6👉 कच्चा दूध शनिवार दिन कुएं में डालें। 7👉 एक बोतल शराब शनिवार के दिन बहती नदी में प्रवाहित करें पंचम भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय👇 1👉 पुत्र के जन्मदिन पर नमकीन वस्तुएं बांटनी चाहिए, मिठाई आदि नहीं। 2👉 माँस और शराब का सेवन न करें। 3👉 काला कुत्ता पालें और उसका पूरा ध्यान रखें। 4👉 शनि यंत्र धारण करें। 5👉 शनिदेव की पुजा करें। 6👉 शनिवार के दिन अपने भार के दसवें हिस्से के बराबर वजन करके, बादाम नदी में प्रवाहित करने का कार्य करें। छठवे भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय 👇 1👉 चमड़े के जूते , बैग , अटैची आदि काप्रयोग न करें। 2👉 शनिवार का व्रत करें। 3👉 चार नारियल बहते पानी में प्रवाहित करें। ध्यान रहे, गंदे नाले मे नहीं करें, परिणाम बिल्कुल उल्टा होगा। 4👉 हर शनिवार के दिन काली गाय को घी से चुपड़ी हुई रोटी नियमित रूप से खिलाएँ। 5👉 शनि यंत्र धारण करें। सप्तम भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय 👇 1👉 पराई स्त्री से अवैध संबंध कदापि न बनाएँ। 2👉 हर शनिवार के दिन काली गाय को घी से चुपड़ी हुई रोटी नियमितरूप से खिलाएँ। 3👉 शनि यंत्र धारण करें। 4👉 मिट्टी के पात्र में शहद भरकर खेत में मिट्टी के नीचे दबाएँ। खेत की जगह बगीचे में भी दबा सकते हैं। 5👉 अपने हाथ में घोड़े की नाल का शनि छल्ला धारण करें। अष्टम भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय 👇 1👉 गले में चाँदी की चेन धारण करें। 2👉 शराब का त्याग करे और मांसाहार भी न करे। 3👉 शनिवार के दिन आठ किलो उड़द बहती नदी में प्रवाहित करें। उड़द काले कपड़े में बांध कर ले जाएँ और बंधन खोल कर ही प्रबहित करें। 4👉 सोमवार के दिन चावल का दान करना आपके लिए उत्तम हैं। 5👉 काला कुत्ता पालें और उसका पूरा ध्यान रखें। नवम भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय 👇 1👉 पीले रंग का रुमाल सदैव अपने पास रखें। 2 👉 साबुत मूंग मिट्टी के बर्तन में भरकर नदी में प्रवाहित करें। 3👉 सवा 6 रत्ती का पुखराज ज्योतिषी से पूछ कर गुरुवार को धारण करें। 4👉 कच्चा दूध शनिवार दिन कुएं में डालें। 5👉 हर शनिवार के दिन काली गाय को घी से चुपड़ी हुई रोटी नियमितरूप से खिलाएँ। 6👉 शनिवार के दिन किसी तालाब, नदी में मछलियों को आटा डाले। दशम भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय 1👉 पीले रंग का रुमाल सदैव अपने पास रखें। 2👉 आप अपने कमरे के पर्दे , बिस्तर का कवर , दीवारों का रंग आदि पीला रंग की करवाए यह आप के लिए उत्तम रहेगा। 3👉 पीले लड्डू गुरुवार के दिन बाँटे। 4👉 आपने नाम से मकान न बनवाएँ। 5👉 अपने ललाट पर प्रतिदिन दूध अथवा दही का तिलक लगाए। 6👉 शनि यंत्र धारण करें। 7👉 जब भी आपको समय मिले शनि दोष निवारण मंत्र का जाप करे। एकादश भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय👇 *1👉 शराब और माँस से दूर रहें।* *2👉 मित्र के वेश मे छुपे शत्रुओ से सावधान रहें।* *3👉 सूर्योदय से पूर्व शराब और कड़वा तेल मुख्य दरवाजे के पास भूमि पर गिराएँ।* *4👉 परस्त्री गमन न करें।* *5👉 शनि यंत्र धारण करें।* *6👉 कच्चा दूध शनिवार के दिन कुएं में डालें।* *7👉 कौवों को दाना खिलाएँ।* द्वादश भाव में शनि हो तो कष्ट निवारण के उपाय 👇 *1👉 जातक झूठ न बोले।* *2👉 शराब और माँस से दूर रहें।* *3👉 चार सूखे नारियल बहते पानी में प्रवाहित करें।* *4👉 शनि यंत्र धारण करें।* *5👉 शनिवार के दिन काले कुत्ते ओर गाय को रोटी खिलाएँ।* *6👉 शनिवार को कडवे तेल , काले उड़द का दान करे।* *7👉 सर्प को दूध पिलाएँ।*

Gayatri sadhna

चौबीस अक्षरों का शक्तिपुंज …………

गायत्री के नौ शब्द ही महाकाली की नौ प्रतिमाएँ हैं, जिन्हें आश्विन की नवदुर्गाओं में विभिन्न उपचारों के साथ पूजा जाता है। देवी भागवत् में गायत्री की तीन शक्तियों- ब्राह्मी वैष्णवी, शाम्भवी के रूप में निरूपित किया गया है और नारी- वर्ग की महाशक्तियों को चौबीस की संख्या में निरूपित करते हुए उनमें से प्रत्येक के सुविस्तृत माहात्म्यों का वर्णन किया है।गायत्री के चौबीस अक्षरों का आलंकारिक रूप से अन्य प्रसंगों में भी निरूपण किया गया है। भगवान् के दस ही नहीं, चौबीस अवतारों का भी पुराणों में वर्णन है। ऋषियों में सप्त ऋषियों की तरह उनमें से चौबीस को प्रमुख माना गया है- यह गायत्री के अक्षर ही हैं। देवताओं में से त्रिदेवों की ही प्रमुखता है पर विस्तार में जाने पर पता चलता है कि वे इतने ही नहीं; वरन् चौबीस की संख्या में भी मूर्द्धन्य प्रतिष्ठा प्राप्त करते रहे हैं। महर्षि दत्तात्रेय ने ब्रह्माजी के परामर्श से चौबीस गुरुओं से अपनी ज्ञान- पिपासा को पूर्ण किया था। यह चौबीस गुरु प्रकारान्तर से गायत्री के चौबीस अक्षर ही हैं। सौरमण्डल के नौ ग्रह हैं। सूक्ष्म- शरीर के छह चक्र और तीन ग्रंथि- समुच्चय विख्यात हैं, इस प्रकार उनकी संख्या नौ हो जाती है। इन सबकी अलग- अलग अभ्यर्थनाओं की रूपरेखा साधना- शास्त्रों में वर्णित है। गायत्री के नौ शब्दों की व्याख्या में निरूपित किया गया है कि इनसे किस पक्ष की, किस प्रकार साधना की जाए तो उसके फलस्वरूप किस प्रकार उनमें सन्निहित दिव्यशक्तियों की उपलब्धि होती रहे। अष्ट सिद्धियों और नौ ऋद्धियों को इसी परिकर के विभिन्न क्षेत्रों की प्रतिक्रिया समझा जा सकता है। अतींद्रिय क्षमताओं के रूप में परामनोविज्ञानी मानवीय सत्ता में सन्निहित जिन विभूतियों का वर्णन- निरूपण करते हैं, उन सबकी संगति गायत्री मंत्र के खण्ड- उपखण्डों के साथ पूरी तरह बैठ जाती है। देवी भागवत् सुविस्तृत उपपुराण है। उसमें महाशक्ति के अनेक रूपों की विवेचना तथा शृंखला है। उसे गायत्री की रहस्यमय शक्तियों का उद्घाटन ही समझा जा सकता है। ऋषियुग के प्राय: सभी तपस्वी गायत्री का अवलम्बन लेकर ही आगे बढ़े हैं। मध्यकाल में भी ऐसे सिद्ध- पुरुषों के अनेक कथानक मिलते हैं, जिनमें यह रहस्य सन्निहित है कि उनकी सिद्धियाँ- विभूतियाँ गायत्री पर ही अवलम्बित हैं। यदि इन्हीं दिनों इस सन्दर्भ में अधिक जानना हो, तो अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा द्वारा प्रकाशित गायत्री महाविज्ञान के तीनों खण्डों का अवगाहन किया जा सकता है, साथ ही यह भी खोजा जा सकता है कि ग्रन्थ के प्रणेता ने सामान्य व्यक्तित्व और स्वल्प साधन होते हुए भी कितने बड़े और कितने महत्त्वपूर्ण कार्य कितनी बड़ी संख्या में सम्पन्न किये हैं। उन्हें कोई समर्थ व्यक्ति, यों पाँच जन्मों में या पाँच शरीरों की सहायता से ही किसी प्रकार सम्पन्न कर सकता है। अन्यान्य धर्मों में अपने- अपने सम्प्रदाय से सम्बन्धित एक- एक ही प्रमुख मंत्र है। भारतीय धर्म का भी एक ही उद्गम- स्रोत है- गायत्री उसी के विस्तार के रूप में- पेड़ के तने, टहनी, फल- फूल आदि के रूप में- वेद शास्त्र, पुराण, उपनिषद्, स्मृति, दर्शन, सूक्त आदि का विस्तार हुआ है। एक से अनेक और अनेक से एक होने की उक्ति गायत्री के ज्ञान और विज्ञान से सम्बन्धित- अनेकानेक दिशाधाराओं से सम्बन्धित- साधनाओं की विवेचना करके विभिन्न पक्षों को देखते हुए विस्तार के रहस्य को भली प्रकार समझा जा सकता है।

How to read horoscopes and interpret them series 27

गोचर कुंडली फलादेश

ज्योतिष में भचक्र की किसी राशि विशेष में ग्रह के जाने का नाम गोचर है | ‘गो’ का मतलब है ग्रह जो जाता है| ‘चर’ का मतलब है ‘गमन’ संचार | इसलिए दिनानुदिन आकाश में जो ग्रह जाते हैं तब उस राशि में गोचरवश ग्रह हुआ, यह कहते है जन्म-चक्र स्थिर है | इसमें ग्रहों की स्थिति जन्मकाल में है, परन्तु ग्रह स्थिर नहीं है, चलते रहते हैं | इसलिए जब जहाँ जाते हैं वहां पर उनकी स्थिति कही जाती है |
भचक्र में ये चलते रहते हैं और चक्र को पूरा करने पर फिर उसी मार्ग में दुबारा जाते हैं |इसलिए जब हम गोचर विचार कहते हैं तो जन्मकालिक ग्रह की स्थिति और ग्रह कहाँ जा रहे हैं, दोनों का ही विचार करते हैं |गोचर कुंडली फलादेश करते समय निम्नलिखित बिन्दुओं को ध्यान में रखना चाहिए –
१. ग्रह जब जन्म राशि से अथवा लग्न से बारहवें स्थान में जाते हैं तो अत्यधिक व्यय करते हैं, विशेष तौर पर उस समय जब दो या तीन ग्रह बारहवें स्थान में जाते हों|क्रूर ग्रह अधिक व्यय करते हैं | शुभ ग्रह अच्छे कार्यों में जैसे की विवाह, धर्म इत्यादि में व्यय करते हैं |
२. सूर्य, बुद्ध और शुक्र बारह राशियों का भ्रमण एक वर्ष में पूरा कर लेते हैं | ये ग्रह प्रायः एक राशि में एक मास तक रहते हैं | यदि जन्म के समय कोई ग्रह राशि में बलवान हो (अपने उच्च, मित्र अथवा अपनी ही राशि में) और किसी शुभ स्थान में भी बैठा हो तो गोचर में यदि वह किन्हीं अशुभ भावों में जाएगा तो भी उसका अधिक बुरा फल नहीं होगा |
यही फल उस समय भी समझना चाहिए जब ग्रह (जिसके गोचर का विचार किया जा रहा हो) अच्छे भाव का श्वामी हो या जन्म कुंडली में योगकारक हो |
३. यदि कोई ग्रह राशि ओर भाव में भी बलवान हो तो जब गोचर में शुभ स्थानों से जाता है तो अत्यधिक शुभ फल देता है |
४. यदि कोई ग्रह कमजोर हो (राशि और नवांश में नीच का हो या किसी शत्रु की राशि और नवांश में हो) और किसी क्रूर ग्रह के साथ बैठा हो या दृष्ट हो और उसपर किसी शुभ ग्रह की युति या दृष्टि न हो अथवा अशुभ स्थानों का श्वामी हो, अस्त हो तो गोचर में वह शुभ स्थानों में जाता हुआ भी विशेष शुभ फल नहीं देगा |
५. गोचर में यदि किसी ग्रह का क्रूर ग्रहों से योग हो या उसपर क्रूर ग्रहों की दृष्टि पड़े, तो गोचर में जाते हुए ग्रह का अच्छा फल कम हो जाता है और बुरा फल बढ़ जाता है| यदि कोई ग्रह गोचर में अस्त हो या अपनी नीच राशि या नीच नवांश में हो तो उसका भी इसी प्रकार फल होता है| ६. गोचर में जब किसी ग्रह का किसी शुभ ग्रह से योग होता है अथवा उसपर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि पड़ती है तो तो उस गोचर में जाते हुए ग्रह का अच्छा फल बढ़ जाता है और ख़राब फल कम हो जाता है|
उदाहरण के लिए मंगल यदि तीसरे स्थान में जा रहा हो और उसी समय शुक्र अथवा गुरु भी वहां जाएँ तो मंगल के शुभ फल को बढ़ाएंगे| इसके अलावा यदि मंगल नवम स्थान से जा रहा हो और उसपर गुरु की द्रष्टि पड़े तो मंगल का अशुभ फल कम हो जायेगा|
७. जब कोई ग्राह अपनी उच्च राशि या अपनी स्वयं की राशि या अपने नवांश या उच्च नवांश में से जाता है तो उसका अच्छा फल बढ़ता है और ख़राब फल कम हो जाता है
उदाहरण के लिए शनि के साढ़े सात वर्ष (साढ़े साती) ख़राब मानी गई है, परन्तु कन्या राशि वाले के लिए अंतिम ढाई वर्षों में शनि तुला में आयेगा| तुला राशि शनि का उच्च स्थान है इसलिए वहां पर शनि अधिक पीड़ा नहीं देगा|
८. शुभ ग्रह गोचर में जब वक्री होते हैं तो अधिक शुभ फल देते हैं| क्रूर ग्रहों के वक्री होने पर अत्यधिक अशुभ फल होता है|
९. सबसे अधिक शुभ अथवा अशुभ प्रभाव उस समय होता है जिस समय दो या अधिक ग्रह गोचर में वक्री हो जाएँ (शुभ ग्रह अथ्वा क्रूर ग्रह)
१०. क्रूर ग्रह अशुभ स्थानों में जाते हुए ज्यादा बुरा फल देंगे यदि जिस राशी में वे जा रहे है उस राशि में जन्म के समय कोई ग्रह बैठा हो तो भी अच्छा फल देते हैं|
उदहारण के लिए गुरु चौथे स्थान में जा रहा हो जहाँ सूर्य भी जन्म के समय है तो जिस समय गुरु सूर्य पर से जायेगा तो सूर्य अच्छा फल देगा जैसे उच्च स्थान, नए मित्र, नया कार्य, पिता का या स्वयं का धन इत्यादि|
१२. यदि जन्म के समय किसी भाव पर शुभ ग्रहों की द्रष्टि हो तो गोचर में क्रूर ग्रह भी उस भाव में जाते हुए बहुत बुरा फल नहीं देंगे|
१३. जन्म के समय लग्न में बैठा हुआ ग्रह गोचर में जिस भाव में जायेगा उस भाव का फल देगा|
१४. जो अच्छा या बुरा फल ग्रह जन्म-कुंडली में बताता है वह फल उस समय होगा जब ग्रह लग्न में ले जा रहा हो|
१५. गोचर विचार में सूर्य और मंगल प्रथम १० अंश के भीतर, गुरु और शुक्र १० से २० अंश के भीतर तथा बुध सम्पूर्ण राशि में अपना फल देते हैं|
१६. यह गोचर में किसी प्रकार का अच्छा या बुरा फल देगा यह इस बात पर निर्भर करता है की वह ग्रह जन्म-कुंडली में-
(अ) किन भावों का स्वामी है ?
(ब) किस स्थान में बैठा हुआ है ?
(स) किस वस्तु का कारक है ?
(द) गोचर में किस भाव में जा रहा है ?
यहाँ भाव का विचार जन्म राशि से, जन्म लग्न से तथा ग्रह के मूल स्थान से करना चाहिए |

Calculating vinshottari dasha effects

महादशा विचार

​दशा- अन्तर्दशा का ज्ञान प्राप्त करना उतना कठिन नहीं है जितना फल ज्ञात करना| फलित ज्ञान प्राप्त करने में कठिनाई इसलिए
आती है महादशा किसी ग्रह की और अन्तर्दशा, प्रत्यंतरदशा इत्यदि किसी और ग्रह की चल रही होती है| फलतः इनकी सम्यक संगति बैठाकर अनुपालिक फल निर्धारण करना एक अत्यंत जटिल एवं कठिन प्रक्रिया है जिस प्रकार शहद और घी दोनों अलग-अलग पदार्थ अमृत समान गुण वाले होकर भी दोनों संभाग मिलकर विष का निर्माण कर देते हैं, जिसका प्रभाव अपनी अलग विशेषता रखता है, बिल्कुल वैसे ही किसी ग्रह की महा दशा में किसी अन्य ग्रह की महादशा आने पर फलित भी बदल जाता है| महादशा की समयावधि लम्बी होती है और किसी भी ग्रह की महादशा का सम्पूर्ण भोग्य समय एक समान फलदायक नहीं होता| महादशा वाला ग्रह जिस राशि में है उसके १०-१० अंश क्र तीन भाग करें राशि के ऐसे एक भाग को द्रेश्काण कहते है| अब देखें की महादशा वाला ग्रह राशि के किस भाग (द्रेश्काण) में है, यदि प्रथम द्रेश्काण है तो महादशा के प्रथम भाग में, द्दितीय द्रेश्काण है तो महादशा के मध्य भाग में अपना शुभाशुभ फल प्रदान करेगा|
दशाफल सूत्र- यदि कोई ग्रह वार्गोत्तमी है तो अपनी दशा-अन्तर्दशा में शुभ फल प्रदान करता है|
यदि कोई ग्रह वार्गोत्तमी तो हो, लेकिन अपनी नीच राशि में होतो मिश्रित फल देता है|
त्रिक स्थान (६,८,१२) के श्वामी अपनी दशा में अशुभ फल देते हैं|
त्रिक स्थान में बैठे ग्रह अपनी महादशा में त्रिकेश कि अंतर दशा आने पर व त्रिकेश की महादशा में अपनी अन्तर्दशा आने पर अशुभ फल देते हैं|
क्रूर ग्रह की महादशा में जब जन्म नक्षत्र से तीसरे, पांचवें व सातवें ग्रह के स्वामी की अन्तरदशा हो तो अशुभ फल मिलते हैं|
क्रूर ग्रह की महादशा और जन्मराशि के स्वामी की अन्तर्दशा में भी अशुभ फल प्राप्त होता है|
जन्म राशि से आठवीं राशि के स्वामी की दशा में क्रूर ग्रह की अन्तर्दशा कष्टदायक होती है|
शनि की दशा चौथी, मंगल व राहू की दशा पाचवीं और वृहस्पति की दशा छठी पड़ती हो तो ये विशेष कष्टकारक रहती है| जैसे शुक्र की महादशा में जन्म हो तो राहू की महादशा पाचवीं होगी, वृहस्पति की छठी आदि|
किसी राशि के अंतिम अंशों में स्थित ग्रह कि दशा-अन्तर्दशा अनिष्टकारक होती है|
यदि उच्च राशि में स्थित ग्रह नवांश में नीच का हो जाये तो अशुभ फल देता है|
यदि नीच राशि में स्थित ग्रह उच्च नवांश में हो तो अपनी दशा में शुभ फल देता है|
किसी ग्रह की महादशा में उसके शत्रु ग्रह की अन्तर्दशा आने पर अनेक कष्ट होते हैं|
यदि महादशा नाथ से अन्तर्दशा का स्वामी त्रिक स्थान ६,८,१२ में हो तो अशुभ फल देता है|
राहू लग्न से तीसरे, छठे, आठवें, ग्यारहवें स्थित हो तथा चन्द्रमा से दूसरे या आठवें भाव में स्थित हो तो अपनी दशा में मारक होता है| यदि इन्हीं स्थानों में वह शुक्र अथवा गुरु से सम्बन्ध करें तो भी मारक होता है|
शत्रु छेत्री ग्रह की दशा में जातक के कार्यों में विघ्न- बाधाएं आती हैं|
षष्ठेश की दशा में अन्य अशुभ फल तो मिलते ही हैं, रोगों से भी कष्ट मिलता है|
अस्तग्रह की दशा में अनेक अशुभ फल प्राप्त होते हैं|
वक्री ग्रह की दशा में परदेशवास, रोग, पीड़ा, धनहानि तथा मानहानि जिसे फल मिलते हैं|
राहू अथवा केतु से युक्त पापी ग्रह की दशा विशेष कष्टदायक व्यतीत होती है|
लग्नेश अष्टमस्थ हो तो अपनी दशा में अत्यधिक पीड़ा देता है, यहाँ तक की मृतु भी सम्भव है|
छिण चन्द्रमा और पाप ग्रह युक्त बुध अशुभ फलदायक होता है|
यदि लग्नेश होरा, द्रेश्काण, नवांश, द्वदशांश व लग्न का स्वामी हो तो अपनी दशा में अत्यंत शुभ फलदायक होता है| भाव का स्वामी जिस राशि में बैठा हो और उस राशि अथवा भाव का स्वामी छठें, आठवें या बारहवें भाव में स्थित हो तो भाव के स्वामी ग्रह
की दशा में भावजन्य फल का नाश हो जाता है| उदाहरणार्थ- पंचम भाव का स्वामी बुध यदि दशम भाव में स्थित हो और वहां वृश्चिक राशि हो, जिसका स्वामी मंगल छठे भाव में कर्क राशि का स्थित हो तो बुध की दशा में पंचम भाव सम्बन्धी फल नष्ट हो जाता है| षष्ठेश व अष्टमेशकी परस्पर दशा-अन्तर्दशा होने पर अशुभ फल ही प्राप्त होता है|
शुभ ग्रह की महादशा में पापी ग्रह की अन्तर्दशा आने पर पहले दुःख बाद में सुख मिलता है|
महाशेष व अंतरशेष किस राशि में हैं, किस ग्रह से दृष्ट हैं, किस ग्रह के साथ हैं, इन सब का सम्यक अध्यन करके ही फलाफल का निर्णय करना चाहिए

Planets and diseases caused by them post 1128

चलो आप ज्योतिष और बीमारियां देखते हैं कि किस ग्रह से कौन सी बीमारी होती है
सूर्य के बाद धरती के उपग्रह चन्द्र का प्रभाव धरती पर पूर्णिमा के दिन सबसे ज्यादा रहता है। जिस तरह मंगल के प्रभाव से समुद्र में मूंगे की पहाड़ियां बन जाती हैं और लोगों का खून दौड़ने लगता है उसी तरह चन्द्र से समुद्र में ज्वार-भाटा उत्पत्न होने लगता है और लोगों के मन-मस्तिष्क में बैचेनी दौड़ने लगती है। जितने भी दूध वाले वृक्ष हैं सभी चन्द्र के कारण उत्पन्न हैं। चन्द्रमा बीज, औषधि, जल, मोती, दूध, अश्व और मन पर राज करता है। लोगों की बेचैनी और शांति का कारण भी चन्द्रमा है।

इसी तरह प्रत्येक ग्रह का हमारी धरती और हमारे शरीर सहित मन-मस्तिष्क पर प्रभाव पड़ता है जिसके चलते हमें सामान्य या गंभीर बीमारियों का सामना करना पड़ता है। यदि वक्त के पहले हम सतर्क हो जाएं तो हम कई सारी बीमारियों से कुद को बचा सकते हैं। आओ जानते हैं कि कौन सा ग्रह देता है कौन सी बीमारी…
सूर्य की बीमारी :

* व्यक्ति अपना विवेक खो बैठता है।
* दिमाग समेत शरीर का दायां भाग सूर्य से प्रभावित होता है।
* सूर्य के अशुभ होने पर शरीर में अकड़न आ जाती है।
* मुंह में थूक बना रहता है।
* दिल का रोग हो जाता है, जैसे धड़कन का कम-ज्यादा होना।
* मुंह और दांतों में तकलीफ हो जाती है।
* बेहोशी का रोग हो जाता है।
* सिरदर्द बना रहता है।
चंद्र ग्रह से होती यह बीमारी:

* चन्द्र में मुख्य रूप से दिल, बायां भाग से संबंध रखता है।
* मिर्गी का रोग।
* पागलपन।
* बेहोशी।
* फेफड़े संबंधी रोग।
* मासिक धर्म गड़बड़ाना।
* स्मरण शक्ति कमजोर हो जाती है।
* मानसिक तनाव और मन में घबराहट।
* तरह-तरह की शंका और अनिश्चित भय।
* सर्दी-जुकाम बना रहता है।
* व्यक्ति के मन में आत्महत्या करने के विचार बार-बार आते रहते हैं।
मंगल देता यह बीमारी:

* नेत्र रोग।
* उच्च रक्तचाप।
* वात रोग।
* गठिया रोग।
* फोड़े-फुंसी होते हैं।
* जख्मी या चोट।
* बार-बार बुखार आता रहता है।
* शरीर में कंपन होता रहता है।
* गुर्दे में पथरी हो जाती है।
* आदमी की शारीरिक ताकत कम हो जाती है।
* एक आंख से दिखना बंद हो सकता है।
* शरीर के जोड़ काम नहीं करते हैं।
* मंगल से रक्त संबंधी बीमारी होती है। रक्त की कमी या अशुद्धि हो जाती है।
* बच्चे पैदा करने में तकलीफ। हो भी जाते हैं तो बच्चे जन्म होकर मर जाते हैं।
बुध ग्रह की बीमारी.:

*तुतलाहट।
*सूंघने की शक्ति क्षीण हो जाती है।
*समय पूर्व ही दांतों का खराब होना।
*मित्र से संबंधों का बिगड़ना।
*अशुभ हो तो बहन, बुआ और मौसी पर विपत्ति आना।
*नौकरी या व्यापार में नुकसान होना।
*संभोग की शक्ति क्षीण होना।
*व्यर्थ की बदनामी होती है।
*हमेशा घूमते रहना, ज्यादातर पहाड़ी इलाकों में।
*कोने का अकेला मकान जिसके आसपास किसी का मकान न हो।
गुरु की बीमारी :

*गुरु के बुरे प्रभाव से धरती की आबोहवा बदल जाती है। उसी प्रकार व्यक्ति के शरीर की हवा भी बुरा प्रभाव देने लगती है।
*इससे श्वास रोग, वायु विकार, फेफड़ों में दर्द आदि होने लगता है।
*कुंडली में गुरु-शनि, गुरु-राहु और गुरु-बुध जब मिलते हैं तो अस्थमा, दमा, श्वास आदि के रोग, गर्दन, नाक या सिर में दर्द भी होने लगता है।
*इसके अलावा गुरु की राहु, शनि और बुध के साथ युति अनुसार भी बीमारियां होती हैं, जैसे- पेचिश, रीढ़ की हड्डी में दर्द, कब्ज, रक्त विकार, कानदर्द, पेट फूलना, जिगर में खराबी आदि।
शुक्र की बीमारी :

* घर की दक्षिण-पूर्व दिशा को वास्तु अनुसार ठीक करवाएं।
* शरीर में गाल, ठुड्डी और नसों से शुक्र का संबंध माना जाता है।
* शुक्र के खराब होने से वीर्य की कमी भी हो जाती है। इससे किसी भी प्रकार का यौन रोग हो सकता है या व्यक्ति में कामेच्छा समाप्त हो जाती है।
* लगातार अंगूठे में दर्द का रहना या बिना रोग के ही अंगूठे का बेकार हो जाना शुक्र के खराब होने की निशानी है।
* शुक्र के खराब होने से शरीर में त्वचा संबंधी रोग उत्पन्न होने लगते हैं।
* अंतड़ियों के रोग।
* गुर्दे का दर्द
* पांव में तकलीफ आदि।

शनि की बीमारी :

* शनि का संबंध मुख्‍य रूप से दृष्टि, बाल, भवें और कनपटी से होता है।
* समय पूर्व आंखें कमजोर होने लगती हैं और भवों के बाल झड़ जाते हैं।
* कनपटी की नसों में दर्द बना रहता है।
* समय पूर्व ही सिर के बाल झड़ जाते हैं।
* फेफड़े सिकुड़ने लगते हैं और तब सांस लेने में तकलीफ होती है।
* हड्डियां कमजोर होने लगती हैं, तब जोड़ों का दर्द भी पैदा हो जाता है।
* रक्त की कमी और रक्त में बदबू बढ़ जाती है।
* पेट संबंधी रोग या पेट का फूलना।
* सिर की नसों में तनाव।
* अनावश्यक चिंता और घबराहट बढ़ जाती है।
राहु की बीमारी :

* गैस प्रॉब्लम।
* बाल झड़ना
* उदर रोग।
* बवासीर।
* पागलपन।
* राजयक्ष्मा रोग।
* निरंतर मानसिक तनाव बना रहेगा।
* नाखून अपने आप ही टूटने लगते हैं।
* मस्तिष्क में पीड़ा और दर्द बना रहता है।
* राहु व्यक्ति को पागलखाने, दवाखाने या जेलखाने भेज सकता है।
* राहु अचानक से भी कोई बड़ी बीमारी पैदा कर देता है और व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।

education related astrology

🌸पढाई और ज्योतिष 

ज्योतिष आपके अध्ययन में अनुकूल परिस्थितिओं का निर्माण करता है।विद्यार्थी को यही शिक्षा दी जाती है कि अध्‍ययन में कठोर मेहनत का कोई विकल्‍प नहीं है, लेकिन अभिभावक यह ध्‍यान रख सकते हैं कि पढ़ाई के साथ साथ उसे बाहरी सहायता क्‍या दी जाए।
ग्रहों से मिलने वाली सहायता लेने पर विद्यार्थी कई बार बेहतर प्रदर्शन करते हैं। इस लेख में हम अध्‍ययन में सहायता करने वाले और बाधा पैदा करने वाले ग्रहों के बारे में जानेंगे।
किसी जातक की कुण्‍डली में पांचवे भाव से आरंभिक शिक्षा और नौंवे भाव से उच्‍च शिक्षा  देखी जाती है। जिस वातावरण में विद्यार्थी पढ़ता है वह वातावरण चौथे भाव से देखा जाता है।
चीजों को देखने के लिए विद्यार्थी का क्‍या दृष्टिकोण है, यह चंद्रमा की स्थिति से देखा जाता है। जो शिक्षा विद्यार्थी अर्जित कर रहा है उसे दसवें यानी कर्म भाव और पांचवे या नौवें भाव के संबंध से समझा जाता है।
कुण्‍डली में चौथे भाव में शुभ ग्रह हों, चतुर्थ भाव का अधिपति शुभ प्रभाव में हो तो अध्‍ययन के दौरान घर का वातावरण शांत और सौम्‍य रहता है। इससे विद्यार्थी को अध्‍ययन में सहायता मिलती है।
पांचवे भाव में शुभ ग्रह बैठे हों और पांचवे भाव का अधिपति शुभ प्रभावों में हो तो विद्यार्थी की प्रारंभिक शिक्षा अच्‍छी होती है। ऐसे छात्र दसवीं की परीक्षा और कई बार स्‍नातक स्‍तर की परीक्षाओं में शानदार परिणाम देते हैं।
नौंवे भाव में शुभ ग्रह होने तथा नवमेश के शुभ प्रभाव में होने पर जातक उच्‍च अध्‍ययन में शानदार परिणाम देता है। किसी जमाने में स्‍नातकोत्‍तर को उच्‍च अध्‍ययन समझा जाता था, अब शिक्षा के प्रसार के बाद पीएचडी अथवा पोस्‍ट डॉक्‍टरल को हम उच्‍च शिक्षा की श्रेणी में रख सकते हैं।
अगर पांचवां भाव बेहतर न हो और नौंवा भाव शुभ हो तो स्‍नातक स्‍तर तक औसत प्रदर्शन करने वाला छात्र भी उच्‍च अध्‍ययन के दौरान बेहतर परिणाम पेश करता है।
चंद्रमा मन का कारक ग्रह है। अगर मानसिकता मजबूत हो तो जातक हर तरह के बेहतर परिणाम दे सकता है। पढ़ाई में भी यही बात लागू होती है। चौथा, पांचवां और नौंवा भाव बेहतर होने के बावजूद चंद्रमा खराब होने पर विद्यार्थी को एकाग्रता में कमी और चि‍ड़चिड़ेपन की समस्‍या हो सकती है।
इसके लिए एक सामान्‍य उपचार यह बताया जाता है कि इम्तिहान के दिनों में विद्यार्थी को नियमित रूप से चांदी की कटोरी में मक्‍खन मथकर खिलाया जाए तो वह अधिक एकाग्रता से पढ़ाई कर सकता है।
अगर चंद्रमा से राहू, केतू अथवा शनि की युति अथवा दृष्टि हो तो राहू एवं चंद्रमा के उपचार भी कराने की जरूरत होती है। पढ़ाई के लिए किसी जातक का गुरु बेहतर होना जरूरी है। वह जातक को जीवन में स्‍थायीत्‍व एवं साख दिलाता है।
आज जब शिक्षा ही इन दोनों का आधार है तो हम गुरु को शिक्षा से जोड़कर भी देखते हैं। सामान्‍य तौर पर कुण्‍डली का बारहवां भाव खर्च का भाव है। किसी ग्रह के बारहवें भाव में होने पर उस ग्रह से संबंधित कारकों का ह्रास होता है, लेकिन गुरु के मामले में इससे ठीक उल्‍टा होता है।
‘’सरस्‍वती के भण्‍डार की बड़ी अनोखी बातजो खर्चे त्‍यों त्‍यों बढ़े, ज्‍यों संचे घट जाए’’ यानी बारहवें भाव में बैठा गुरु शिक्षा संबंधी योग को कम करने के बजाय बढ़ाने का काम करता है।
कई मामलों में शुक्र के साथ भी ऐसा देखा गया है। शुक्र भी देवताओं के गुरु हैं। गुरु और शुक्र में मूल अंतर यह रहता है कि शुक्र सांसारिकता एवं विलासिता अथवा इससे संबंधित शिक्षा में बढ़ोतरी करता है।राशियों के अनुसार आराध्य देव
मेष (aries) राशि के विद्यार्थियों की शिक्षा के लिए सूर्य सहायक है। ऐसे जातकों को रोजाना सुबह सूर्य नमस्‍कार करना चाहिए और सूर्य भगवान को अर्ध्‍य देना चाहिए। इन छात्रों का रूटीन जितना नि‍यमित होगा, पढ़ाई में उतने ही अच्‍छे परिणाम हासिल कर पाएंगे।
वृष (turus) राशि के जातकों को के लिए पढ़ाई का कारक ग्रह बुध है। इन जातकों को नियमित रूप से गणेशजी की आराधना करनी चाहिए। इन जातकों को बार-बार रिवीजन करते रहने की जरूरत है।
मिथुन (gemini) राशि के जातकों के लिए शुक्र पढ़ाई का कारक है। ऐसे जातकों को देवी आराधना करना लाभदायी है। पढ़ते समय कमरे का वातावरण अगर खुश्‍बूदार होगा तो ये बेहतर एकाग्र हो पाएंगे।
कर्क (cancer) राशि के जातकों की पढ़ाई के लिए मंगल कारक ग्रह है। नियमित अध्‍ययन के साथ रोजाना हनुमान मंदिर जाने से परीक्षाओं में अंकों का प्रतिशत तेजी से बढ़ सकता है।
सिंह (Leo) राशि के जातकों के लिए गुरु पढ़ाई का कारक है। नियमित रूप से गायत्री मंत्र का जाप करना और विष्‍णु मंदिर जाने से छात्रों को विद्याध्‍ययन में लाभ होगा।
कन्‍या (virgo) एवं तुला राशि के छात्रों के लिए शनि की आराधना लाभदायक रहती है। रोजाना शनि मंदिर जाना और प्रत्‍येक शनिवार तेल एवं तिल की वस्‍तुएं चढ़ाने से शनिदेव प्रसन्‍न होते हैं।
वृश्चिक राशि के छात्रों के लिए गुरु शिक्षा दिलाने वाला है। सरस्‍वती मंत्र का जाप करने और सरस्‍वती के मंदिर जाना लाभदायक सिद्ध हो सकता है।
धनु राशि के लिए मंगल कारक है। इन छात्रों को नियमित रूप से हनुमान मंदिर जाना चाहिए।
मकर राशि के छात्र देवी आराधना कर शिक्षा में बेहतर परिणाम हासिल कर सकते हैं।
कुंभ राशि के जातकों को गणपति की आराधना करने से अध्‍ययन क्षेत्र में सफलता मिलेगी
मीन राशि के छात्रों के लिए चंद्रमा शिक्षा का कारक है। ये छात्र शिव आराधना कर अच्‍छे परिणाम हासिल कर सकते हैं।सरस्‍वती मंत्र (saraswati mantra)

पढ़ाई में लगे विद्यार्थियों को सरस्‍वती मंत्र का जाप करने से पढ़ी सामग्री को तेजी से याद करने और उसे बेहतरीन तरीके से प्रस्‍तुत करने में सहायता मिल सकती है। तंत्र में बीजमंत्र से युक्‍त सरस्‍वती मंत्र को महामंत्र तक कहा गया है।
‘’ऐं वद् वद् वाग्‍वादिनी स्‍वाहा’’
हालांकि तंत्र में इस मंत्र को सिद्ध करने के लिए बड़ी संख्‍या में जाप करने के लिए कहा जाता है, लेकिन विद्यार्थी रोजाना सुबह नहा धोकर, साफ सुथरे आसन पर बैठकर एक माला का जाप नियमित रूप से करे तो कुछ ही महीनों में इसका शानदार परिणाम दिखाई देने लगता है।
अगर जाप करने से पूर्व ग्‍यारह बार अनुलोम विलोम प्राणायाम किया जाए तो विद्यार्थी की इडा और पिंगला दोनों नाडि़यां चलने लगती है और मंत्र अधिक तेजी से सिद्ध होता है। किसी भी विद्यार्थी के लिए सुबह पंद्रह मिनट की यह प्रक्रिया अपनाना मुश्किल नहीं है। इससे शिक्षा संबंधी शानदार परिणाम हासिल किए जा सकते हैं।
चंद्र है महत्‍वपूर्ण (significance of moon)
कुछ विद्यार्थी अलसुबह जल्‍दी उठकर पढ़ते हैं, तो कुछ देर रात तक जागकर पढ़ते हैं। हर विद्यार्थी की अपनी जैविक घड़ी होती है, जिसके अनुसार वह अपने पढ़ने का समय निर्धारित कर लेता है।
इसके बावजूद देखा यह गया है कि सुबह तड़के उठकर पढ़ने वाले विद्यार्थी परीक्षाओं में बेहतर परिणाम हासिल करते हैं।
परीक्षाओं के दिनों में भले ही यह क्रम न बना रहे, लेकिन पूरे साल की जाने वाली पढ़ाई में रात की तुलना में सुबह का समय बेहतर बताया गया है। इसका प्रमुख कारण यह है कि दिन के समय चंद्रमा सक्रिय होता है तो रात के समय शुक्र।
चंद्रमा के काल में की गई पढ़ाई न केवल सात्विक और शुद्ध होती है, बल्कि लंबे समय तक काम आने वाली होती है, वहीं शुक्र के प्रभाव में किया गया अध्‍ययन दीर्ध अवधि तक काम नहीं आ पाता है।  🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻
कुंडली में शिक्षा योग
जैसे एक मकान का आधार अर्थात नींव मजबूत होने पर भविष्य के लिए निश्चिंतता मिल जाती है वैसे ही हमारे जीवन में शिक्षा भविष्य के लिए नींव का कार्य करती है और केवल अर्थोपार्जन के लिए ही नहीं बल्कि व्यक्ति के संपूर्ण चरित्र के विकास के लिए शिक्षा एक आधार का कार्य करती है। वर्तमान में हर एक माता-पिता अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने का पूर्ण प्रयास करते है पर हम अपने आस-पास बहुत से उदाहरण देखते है जहाँ कुछ बच्चे सरलता से शिक्षा पूर्ण करलेते हैं और कुछ को शिक्षा में बाधाओं का सामना करना पड़ता है, कुछ बच्चे बुद्धिमान होने पर भी पढाई में मन नहीं लगा पाते तो कुछ अधिक बुद्धिमान न होने पर भी अपनी शिक्षा को पूरा कर लेते हैं, वास्तव में हमारी कुंडली में बने ग्रह-योग जीवन के प्रत्येक पक्ष को उजागर करते हैं जिससे हम लाभान्वित हो सकते हैं

” जन्मकुंडली का पांचवा भाव हमारे ज्ञान, शिक्षा, और बुद्धि को दर्शाता है। बृहस्पति , ज्ञान , शिक्षा और विवेक का नैसर्गिक कारक है। बुध बुद्धि और कैचिंग-पावर का कारक होता है तथा चन्द्रमाँ मन की एकाग्रता को नियंत्रित करता है अतः कुंडली में पंचम भाव, बृहस्पति, और बुध की स्थिति शिक्षा को नियंत्रित करती है तथा चन्द्रमाँ की इसमें सहायक भूमिका होती है” –

1. पंचम भाव- पंचम भाव हमारी शिक्षा और ज्ञान का भाव होता है, यदि पंचमेश केंद्र, त्रिकोण आदि शुभ भावों में हो, स्व , उच्च , मित्र राशि में हो पंचम भाव पाप प्रभाव से मुक्त हो शुभ ग्रह पंचम भाव और पंचमेश को देखते हों तो शिक्षा अच्छी होती है परन्तु यदि पंचमेश दुःख भाव(6,8,12) में हो अपनी नीच राशि में बैठा हो पंचम भाव में पाप-योग बना हो, षष्टेश, अष्टमेश, द्वादशेश पंचम भाव में हो या पंचम भाव में कोई पाप ग्रह अपनी नीच राशि में बैठा हो तो ऐसे में शिक्षा में बाधाओं का सामना करना पड़ता है या संघर्ष के बाद शिक्षा पूरी होती है।

2. बृहस्पति – बृहस्पति ज्ञान और शिक्षा का कारक ग्रह है अतः कुंडली में बृहस्पति का शुभ भावों (केंद्र, त्रिकोण आदि) में होना स्व, उच्च, मित्र राशि में बैठना अच्छी शिक्षा दिलाता है और व्यक्ति विवेकशील होता है। परन्तु बृहस्पति का दुःख-भाव(6,8,12) में जाना अपनी नीच राशि(मकर) में बैठना, राहु से पीड़ित होना या अन्य प्रकार से कमजोर होना शिक्षा और ज्ञान प्राप्ति में बाधक होता है।

3. बुध – बुध ग्रह का आज के समय में बड़ा महत्व है क्योंकि बुद्ध हमारी बुद्धि क्षमता को नियंत्रित करता है अतः शिक्षा पक्ष में बुध का मजबूत होना बहुत शुभ होता है यदि कुंडली में बुध अपनी उच्च राशि स्व राशि में हो तो व्यक्ति बुद्धिमान और तर्क-कुशल होता है ऐसा जातक किसी भी बात को बहुत जल्दी समझ लेता है और उसकी स्मरणशक्ति भी अच्छी होती है। बलि बुध वाला व्यक्ति तार्किक विषयों में बहुत आगे निकलता है। परन्तु यदि बुध नीच राशि(मीन) में हो, दुःख-भाव(6,8,12) में हो, केतु के साथ हो तो ये स्थितियां भी शिक्षा में बाधक होती हैं।

4. चन्द्रमाँ – चन्द्रमाँ का शिक्षा से सीधा सम्बन्ध तो नहीं है परन्तु हमारे मन की एकाग्रता को चन्द्रमाँ ही नियंत्रित करता है अतः जिन जातकों की कुंडली में चन्द्रमाँ शुभ स्थिति में हो उनका मन स्थिर रहता है परन्तु यदि कुंडली में चन्द्रमाँ नीच राशि(वृश्चिक) में हो, दुःख भाव में हो या राहु , शनि से पीड़ित हो ऐसे व्यक्ति का मन सदैव अस्थिर रहता है , एकाग्रता नहीं बन पाती, जमकर किसी काम को नहीं कर पाते जिससे शिक्षा में रुकावटें आती है और जातक बुद्धिमान होने पर भी शिक्षा में पीछे रह जाता है।

अतः उपरोक्त घटकों के आधार पर हम जातक के जीवन में शिक्षा की स्थिति या शिक्षा में आने वाली बाधाओं के कारण को समझकर उसका समाधान निकाल सकते हैं।

कुछ महत्वपूर्ण तथ्य –

1. जिन बच्चों की कुंडली में बुध कमजोर होता है उन्हें गणनात्मक विषयों में समस्याएं आती हैं। ऐसे बच्चों की हैंड-राइटिंग भी अच्छी नहीं होती। ऐसे बच्चों का उच्चारण भी अक्सर गलत होजाता है।

उपाय – गणेश जी की पूजा करें , बुधवार को गाय को हरा चारा खिलाएं , ॐ बुम बुधाय नमः का जाप करें।

2. जिन बच्चों की कुंडली में बृहस्पति कमजोर होता है वो व्याकरण(ग्रामर) में कमजोर होते है। ऐसे बच्चों की स्वविवेक क्षमता कम होती है तथा मैच्योरिटी कम होती है।

उपाय – ॐ बृम बृहस्पते नमः का जाप करें, गाय को भीगी चने की दाल खिलाएं, केले के पेड़ में जल दें।

3. जिन बच्चों की कुंडली में चन्द्रमाँ कमजोर हो तो ऐसे बच्चे पढाई में मन नहीं लगा पाते उनकी एकाग्रता कमजोर होती है।

उपाय – ॐ सोम सोमाय नमः का जाप करें, शिवलिंग का अभिषेक करें, सफ़ेद चन्दन का तिलक लगायें।

​कुंडली का एकादश भाव

कुंडली का एकादश भाव

शुभ एवं यज्ञीय कर्मों का एक निष्ठा की हदतक पहुँचना, जहाँ शुभता स्वाभाविक तथा पूर्णतया प्राप्त हो जाय, एकादश स्थान अथवा प्राप्ति स्थान का कार्य है।
कुंडली के एकादश भाव के द्वारा संपत्ति, ऐश्वर्य, मांगलिक-कार्य, वाहन, रत्न आदि के संबंध में विचार किया जाता है। इस भाव का कारक गुरू है।
इस प्रकार कुण्डली विकास-क्रम में एकादश भाव को प्राप्ति स्थान की संज्ञा दी गयी है। प्राप्ति, आय, आमदनी आदि सब अलग-अलग शब्द हैं, परंतु अर्थ एक ही है।
इस भाव को अवसर (Opportunity) भी कहते हैं। यदि यह भाव शुभ हो तो जातक जीवन में (शुभ) अवसर हमेशा प्राप्त करता है। एकादश भाव किस्मत की ऊँचाई का कारक है।
जातक अपने जीवन में किस बुलन्दी पर पहुँच सकता है-यह भाव बतलाता है। एकादश भाव लालच का भी प्रतीक है। जातक दूसरों की परवाह किये बिना किस सीमा तक अपना लाभ कर सकता है-यह भाव दर्शाता है।
कालपुरुषकी कुण्डली के अनुसार एकादश भाव में कुम्भ राशी पड़ती है , जिसका  स्वामी ग्रह शनि है एवं कारक ग्रह बृहस्पति है। कुछ सीमा तक शनि भी कारक है। शरीर की सक्रियता को भी यह भाव दर्शाता है।
रिश्तों में यह बड़े भाई-बहनों का कारक है, शरीर में यह बायें हाथ को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त एकादश भाव से ससुराल से धनप्राप्ति, बड़े भाई की स्थिति, हवाई यात्रा, हिंसक प्रव्रत्ति, चोट के योग, माता तथा बहनों के सुख में कमी, बाहुल्यता, राज्य का अर्थ तथा गृह की मूल्य वृद्धि का भी पता चलता है।एकादश भाव से निम्नलिखित विषयों का विचार किया जाता है-

आय या लाभ- एकादश भाव व्यक्ति को मिलने वाले लाभ या उसकी आय का सूचक है| इस भाव में जिस भाव का स्वामी आकर बैठता है, उस भाव से प्राप्त होने वाली वस्तु की प्राप्ति व्यक्ति को होती है-

यदि इस भाव में सूर्य हो तो व्यक्ति को राज्य व मान-सम्मान की प्राप्ति होती है|

यदि इस भाव में चन्द्र हो तो व्यक्ति को तरल पदार्थ, समुद्र, मोती, कृषि, जल आदि से लाभ होता है|

यदि मंगल इस भाव में हो तो व्यक्ति को साहस, निडरता, यंत्र, भूमि, अग्नि संबंधी कार्यों से लाभ मिलता है|

यदि बुध इस भाव में हो तो व्यक्ति को शिक्षण, लेखन व वाणी के द्वारा लाभ मिलता है|

यदि गुरु इस भाव में हो तो व्यक्ति को ज्ञान, साहित्य व धार्मिक गतिविधियों से लाभ प्राप्त होता है|

यदि शुक्र इस भाव में हो तो व्यक्ति को नाटक, नृत्य, संगीत, कला, सिनेमा, आभूषण आदि से लाभ मिलता है|

यदि शनि इस भाव में हो तो व्यक्ति को श्रम, कारखाने, कृषि, राजनीति, सन्यास व गूढ़ विद्याओं से लाभ मिलता है|

यदि, राहु-केतु इस भाव में हो तो सट्टे, लॉटरी, शेयर बाजार, तंत्र-मंत्र, गूढ़ ज्ञान आदि से लाभ मिलता है|2. प्राप्ति- एकादश भाव का संबंध प्राप्ति से है इसलिए किसी भी प्रकार की प्राप्ति का विचार इस भाव से किया जाता है|

3. कीर्ति- दशम स्थान कर्म है और एकादश भाव दशम(कर्म) से द्वितीय(आय) है इसलिए यह व्यक्ति को मिलने वाली कीर्ति, यश व मान-सम्मान का प्रतीक है|

4. बाहुल्य(plenty)– एकादश भाव बहुलतासे भी संबंधित है। जिस भाव का स्वामी एकादश भाव में हो तो वह भाव तथा उसके स्वामी से संबंधित कारकत्वों में वृद्धि होती है, जैसे यदि पंचम भाव का स्वामी एकादश में हो तो मनुष्य की कई संताने होती हैं| इसी प्रकार द्वितीय भाव का स्वामी एकादश स्थान में हो तो मनुष्य के पास काफी रूपया-पैसा होता है|

5. ज्येष्ठ भाई-बहन– एकादश स्थान से बड़े भाई-बहन का विचार भी किया जाता है। इस भाव पर शुभ या अशुभ ग्रहों का जैसा भी प्रभाव हो वैसे ही संबंध व्यक्ति के अपने बड़े भाई-बहन से होते हैं|

6. शारीरिक कष्ट– एकादश भाव छठे भाव से छठा होने के कारण रोग को भी सूचित करता है। एकादश भाव के स्वामी की दशा-अंतर्दशा में मनुष्य को शारीरिक कष्ट हो सकता है|

7. मित्र– मित्रों का विचार भी एकादश भाव से किया जाता है| व्यक्ति के मित्र किस प्रकार के होंगे तथा उनसे मनुष्य के संबंध कैसे रहेंगे आदि की जानकारी भी इसी भाव से प्राप्त होती है|

8. बाधक स्थान– मेष, कर्क, तुला व मकर लग्नों (इन्हें चर लग्न भी कहते हैं।) के लिए एकादश भाव का स्वामी बाधकाधिपति होता है। अतः इन चर लग्नों में एकादशेश की दशा-अंतर्दशा में मनुष्य को बाधाओं व व्यवधानों का सामना करना पड़ सकता है|

9. कामवासना– तृतीय, सप्तम तथा एकादश स्थान काम त्रिकोण माने जाते हैं अतः मनुष्य की कामवासना का विचार भी इस भाव से किया जाता है।

10. आर्थिक स्थिति– द्वितीय भाव के साथ-साथ एकादश स्थान का भी मनुष्य की आर्थिक स्थिति से घनिष्ठ संबंध है। जब भी किसी जन्मकुंडली में द्वितीय भाव के साथ-साथ एकादश भाव मजबूत स्थिति में होता है तो व्यक्ति धनवान, यशस्वी तथा अनेक प्रकार की भौतिक सुख- सुविधाओं को भोगने वाला होता है।

11. शारीरिक अंग– एकादश भाव मनुष्य की बाई भुजा, बांया कान तथा पैरों की पिंडलियों को दर्शाता है। जब भी इस भाव पर तथा इसके स्वामी पर पाप ग्रहों का प्रभाव होता है तो मनुष्य के बांये कान, बाई भुजा व पैर की पिंडलियों में कष्ट होता है।